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________________ ४, १,४४. कदिअणियोगदारे गंथावयारी वरिसेसु पंचमासाहिएसु वड्डमाणजिणणिव्वुददिणादो अइक्कतेसु सगरिंदरज्जुप्पत्ती जादो त्ति । एत्थ गाहा सत्तसहस्सा णवसद पंचाणउदी सपंचमासा य । अइकंता वासाणं जझ्या तइया सगुप्पत्ती ॥ ४३ ॥ ० ९.९५| एदेसु तिसु एक्केण होदव् । ण तिण्णमुद्देसाण सच्चत्तं, अण्णोण्णविरोहादो। तदो जाणिय वृत्तव्वं ।) एत्तो उवरि पयदं परूवेमो - लोहाइरिये सग्गलोग गदे आयार-दिवायरो अत्थमिओ। एवं बारससु दिणयरेसु भरहखेत्तम्मि अत्थमिएसु सेसाइरिया सव्वेसिमंग-पुवाणमेगदेसभूदपेज्जदोस-महाकम्मपयडिपाहुडादीणं धारया जादा । एवं पमाणीभूदमहरिसिपणालेण आगंतूण भहाकम्मपयडिपाहुडामियजलपवाहो धरसेणभडारयं संपत्तो। तेण वि गिरिणयरचंदगुहाए भूदबलि-पुप्फदंताणं महाकम्मपयडिपाहुडं सयलं समप्पिदं । तदो भूदबलिभडारएण सुदणईपवाहवोच्छेदभीएण भवियलोगाणुग्गहढं महाकम्मपयडिपाहुडमुवसंहरिऊण छखंडाणि कयाणि । तदो तिकालगोयरासेसपयत्थविसयपच्चक्खामंतकेवलणाणप्पभावादो पमाणीभूदआइरियपणालेणागदत्तादो दिट्ठिट्ठविरोहाभावादो पमाणमेसो गंथो । तम्हा मोक्खकंखिणा होनेके दिनसे पांच मास अधिक सात हजार नौ सौ पंचानबै वर्षोंके वीतनेपर शक नरेन्द्र के राज्यकी उत्पत्ति हुई । यहां गाथा अब सात हजार नौ सौ पंचानबै वर्ष और पांच मास बीत गये तब शक नरेन्द्रकी उत्पत्ति हुई ॥ ४३ ॥ [ ७९९५ व. ५ मा. ] इन तीन उपदेशोंमें एक होना चाहिये। तीनों उपदेशोंकी सत्यता सम्भव नहीं है, क्योंकि, इनमें परस्पर विरोध है । इस कारण जानकर कहना चाहिये। ____ यहांसे आगे प्रकृतकी प्ररूपणा करते हैं- लोहाचार्यके स्वर्गलोकको प्राप्त होनेपर आचारांगरूपी सूर्य अस्त हो गया। इस प्रकार भरतक्षेत्रमें बारह सूर्योके अस्तमित हो जानेपर शेष आचार्य सब अंग-पूर्वोके एकदेशभूत 'पेजदोस' और ' महाकम्मपयाडिपाहुड' आदिकोंके धारक हुए । इस प्रकार प्रभाणीभूत महर्षि रूप प्रणालीसे आकर महाकम्मपयडिपाहुड रूप अमृत-जल-प्रवाह धरसेन भट्टारकको प्राप्त हुआ । उन्होंने भी गिरिनगरकी चन्द्र गुफामें सम्पूर्ण महाकम्मपयडिपाहुड भूतबलि और पुष्पदन्तको अर्पित किया। पश्चात् श्रुतरूपी नदीप्रवाहके व्युच्छेदसे भयभीत हुए भूतबलि भट्टारकने भव्य जनोंके अनुग्रहार्थ महाकम्मपयडिपाहुडका उपसंहार कर छह खण्ड ( पखंडागम) किये। अतएव त्रिकालविषयक समस्त पदार्थोंको विषय करनेवाले प्रत्यक्ष अनन्त केवल शानके प्रभावसे प्रमाणीभूत आचार्यरूप प्रणालीसे आने के कारण प्रत्यक्ष व अनुमानसे चूंकि विरोधसे रहित है अतः यह ग्रन्थ प्रमाण है । इस कारण मोक्षाभिलाषी भव्य जीवोंको इसका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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