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________________ ४, १, ४४.] कदिअणियोगदारे गंथकत्तुपरूवणा [१०७ कत्तारा दुविहा अत्थकत्तारो गंथकत्तारो चेदि । तत्थ अत्थकत्तारो भयवं महावीरो । तस्स दव-खेत्त-काल-भावेहि परूवणा कीरदे गंथस्स पमाणत्तपदुप्पायणटुं । केरिसं महावीरसरीरं ? समचउरससंठाणं वज्जरिसहवइरणारायणसरीरसंघडणं ससुअंधगंधेण आमोइयतिहुवणं सतेजपरिवेढेण विच्छाईकयसुज्जसंघायं सयलदोसवज्जियमिदि । कधमेदम्हादो सरीरादो गंथस्स पमाणत्तमवगम्मदे ? उच्चदे-णिराउहत्तादो जाणाविदकोह-माण-माया-लोह-जाइजरा-मरण-भय-हिंसाभावं, णिफंदक्खेक्खणादो जाणाविदंतिवेदोदयाभावं । णिराहरणत्तादो जाणाविदरागाभावं, भिउडिविरहादा जाणाविदकोहाभावं । वग्गण-णच्चण-हसण-फोडणक्खसुत्त-जडामउड-णरसिरमालाधरणविरहादो मोहाभावलिंग । णिरंवरत्तादो लोहाभावलिंगं । ण तिरिक्खेहि वियहिचारो, वइधम्माद।। ण दालिदिएहि वियहिचारो, अट्टत्तरसयलक्खणेहि अवगयदालिद्दाभावादो । ण गहछलिएहि वियहिचारो, अट्ठत्तरसयलक्खणेहि अवगयतिहुवणाहिवइत्तस्स गहच्छलणाभावादो । णिव्विसयत्तादो णिस्सेसदोसाभावलिंगं । कर्ता दो प्रकार हैं- अर्थकर्ता और ग्रन्थकर्ता । उनमें अर्थकर्ता भगवान् महावीर हैं। ग्रन्थकी प्रमाणताको बतलानेके लिये उसकी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावसे प्ररूपणा करते हैं। महावीरका शरीर कैसा है ? वह समचतुरस्रसंस्थानसे युक्त, वज्रर्षभवज्रनाराचशरीरसंहननसे सहित, सुगन्ध युक्त गन्धसे तीनों लोकोंको सुगन्धित करनेवाला, अपने प्रभामण्डलसे सूर्यसमूहको फीका करनेवाला, तथा समस्त दोषोंसे रहित है। शंका-इस शरीरसे ग्रन्थकी प्रमाणता कैसे जानी जाती है ? समाधान-- इसका उत्तर कहते हैं- वह शरीर निरायुध होनेसे क्रोध, मान, माया, लोभ, जन्म, जरा, मरण, भय और हिंसाके अभावका सूचक है । स्पन्दं रहित नेत्रदृष्टि होनसे तीनों वेदोंके उदयके अभावका ज्ञापक है, निराभरण होनेसे रागके अभावको प्रकट करनेवाला है । भृकुटि रहित होनेसे क्रोधके अभावका ज्ञापक है। गमन, नृत्य, हास्य, विदारण, अक्षसूत्र, जटा-मुकुट और नरमुण्डमालाको न धारण करनेसे मोहके अभावका सूचक है । वस्त्र रहित होनेसे लोभके अभावका सूचक है । यहां तिर्यंचोंसे व्यभिचार नहीं है, क्योंकि, उनमें साधर्म्यका अभाव है। दरिद्रोंसे भी व्यभिचार नहीं है, क्योंकि, एक सौ आठ लक्षणोंसे महावीरके दरिद्रताका अभाव जाना जाता है । न गृहछलियोंसे (गृहस्खलित अर्थात् गृहभृष्ट मनुष्योंसे) व्यभिचार है, क्योंकि, एक सौ आठ लक्षणोंसे जिनके तीनों लोकोंका अधिपतित्व निश्चित है उनके गृहस्खलन हो नहीं सकता। वह सरीर निर्विषय होनेसे समस्त दोषोंके अभावका सूचक १ प्रतिष 'णिक्कदंखेक्खणादो जाणाविदे' इति पाठः। २ प्रतिषु विहादो' इति पाठः। २ प्रतिषु णिव्वियाथदो', ममतौ ‘णिबियत्थदो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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