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________________ १, १, ७१.] कदिअणियोगहारे करणकदिपरूवणा [३८५ मुहत्तं । मणुसिणीसु आहारपदं णस्थि । मणुसअपजत्तेसु ओरालियसंघादणकदी पंचिंदियतिरिक्खभंगो। संघादण-परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं तिसमऊणं । उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं तिसमऊण, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं समऊणं । तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। एगजी पडुश्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । देवगदीए देवा णारगभंगो। भवणवासिय-वाणवेंतर-जोदिसियदेवेसु वेउब्वियसंघा. दणकदीए देवभंगो। संघादण-परिसादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण दसवाससहस्साणि दसवाससहस्साणि तिसमऊणाणि पलिदोवमट्ठमभागो तिसमऊणो । उक्कस्सेण सागरोवमं पलिदोवमं पलिदोवमं सादिरेयं । तेजा-कम्मइयसंघादण-परि• सादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च सग-सगजहण्णुक्कस्सहिदीओ। सोहम्मीसाणादि जाव सहस्सार त्ति वेउब्वियसंघादणं देवभंगो । वेउब्वियसंघादण अन्तम तनकृतिका जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त काल है। मनुष्यनियोंमें आहारक पद नहीं होता। मनुष्य अपर्याप्तोंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृतिकी कालप्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्योंके समान है। संघातन परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे तीन समय कम क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे पल्योपमका असंख्यातवां भाग काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे तीन समय कम क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे एक समय कम काल है। तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे पल्योपमका असंख्यातवां भाग काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त काल है। देवगतिमें देवोंकी कालप्ररूपणा नारकियोंके समान है। भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृतिके कालकी प्ररूपणा देवोंके समान है । संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे क्रमशः तीन समय कम दस हजार वर्ष, तीन समय कम दस हजार वर्ष और तीन समय कम पल्योपमका आठवां भाग काल है; तथा उत्कर्षसे साधिक एक सागरोपम, साधिक एक पल्योपम और साधिक एक पल्योपम काल है। तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है । एक जीवकी अपेक्षा अपनी अपनी जघन्य व उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण काल है। सौधर्म व ईशान कल्पसे लेकर सहस्रार कल्प तक वैक्रियिकशरीरकी संधातनकृतिको कालप्ररूपणा देवोंके समान है। वैक्रियिकशरीरकीसंघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी छ. क. ४९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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