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________________ ३२४ खंड बेयणाखंड [ ४, १, ६८. णिग्गंथतं । णइगमणएण तिरयेणाणुवजोगी बज्झभंतरपरिग्गहपरिच्चाओ णिग्गथतं । एवं गंधकदी समत्ता | जा सा करणकदी णाम सा दुविहा मूलकरणकदी चेव उत्तरकरणकदी चैव । जा सा मूलकरणकदी णाम सा पंचविहा- ओरालियसरीरमूलकरणकदी उव्वियसरीरमूलकरणकदी आहारसरीरमूलकरणकदी तेयासरीर मूलकरणकदी कम्मइयसरीरमूलकरणकदी चेदि ॥ ६८ ॥ 6 जा सा करणकदी णाम ' इति पुव्वुद्दिट्ठअहियार संभालगडं भणिदं । सा दुविहा, अपेक्षा तो रत्नत्रयमें उपयोगी पड़नेवाला जो भी बाह्य व अभ्यन्तर परिग्रहका परित्याग है उसे निर्ग्रन्थता समझना चाहिये । - विशेषार्थ – यहां नामादि निक्षेपों द्वारा ग्रन्थकृतिका विचार करते हुए मुख्यतया तद्व्यतिरिक्त द्रव्यग्रन्थकृति और भावग्रन्थकृति के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है । जैसा कि ग्रन्थकृतिका निर्देश करते हुए सूत्रमें उसे लौकिक, वैदिक और सामायिक भेदसे तीन प्रकारका बतलाया है। तदनुसार जिन निमित्तोंके आधार से इन ग्रन्थोंकी रचना होती है वे सब तद्द्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यग्रन्थकृति कहलाते हैं । प्रकृतमें टीकाकारने गूंथना, नना आदि द्वारा लौकिक ग्रन्थकृतिके निमित्तोंका निर्देश किया है । इसी प्रकार अन्य ग्रन्थकृतियोंकी रचना के निमित्त जानने चाहिये । भावग्रन्थकृतिका निर्देश करते हुए नोआगमभावग्रन्थकृति श्रुत और नोश्रुत भेदसे दो प्रकार की बतलाई है। श्रुतमें लौकिक, वैदिक और सामायिक सब प्रकारके श्रुतका ज्ञान लिया गया है और नोश्रुतमें बाह्य तथा अभ्यन्तर परिग्रह लिया गया है । अभ्यन्तर परिग्रह तो आत्माके परिणाम है, इसलिये इनका भाव निक्षेपमें अन्तर्भाव हो जाता है इसमें सन्देह नहीं; किन्तु बाह्य परिग्रहका भावनिक्षेपमें अर्न्तभाव नहीं होता । फिर भी यहां कारणमें कार्यका उपचार करके भावनिक्षेपके प्रकरण में बाह्य परिग्रहका भी ग्रहण किया है, ऐसा यहां समझना चाहिये । इस प्रकार ग्रन्थकृति समाप्त हुई । करणकृति दो प्रकारकी है - मूलकरणकृति और उत्तरकरणकृति । मूलकरण कृति पांच प्रकारकी है - औदारिकशरीरमूलकरणकृति, वैक्रियिकशरीरमूलकरणकृति, आहारकशरीरमूलकरणकृति, तैजसशरीरमूलकरणकृति और कार्मणशरीरमूलकरणकृति ॥ ६८ ॥ ' जो वह करणकृति ' यह वचन पूर्वमें उद्दिष्ट अधिकारका स्मरण करानेके लिये १ नापतौ ' तिरिय ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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