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________________ - [८९ १, १, २२.] कदिअणियोगद्दारे उग्गतवरिद्धिपरूवणा मरणाभावादो। अघादाउआ वि छम्मासोववासा चेव होति, तदुवरि संकिलेसुप्पत्तीदो ति उत्ते होदु णाम एसो णियमो ससंकिलेसाणं सोवक्कमाउआणं च, ण संकिलेसविरहिदणिरुवक्कमाउआणं तवोबलेणुप्पण्णविरियंतराइयक्खओवसमाणं तब्बलेणेव मंदीकयासादावेदणीओदयाणमेस णियमो, तत्थ तव्विरोहादो। एरिसी सत्ती महाणस्सुप्पज्जदि ति कषं णव्वदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो । कुदो ? छम्मासेहिंतो उवरि उववासाभावे उग्गुग्गतवाणुववत्तीदो। तत्थ दिक्खट्ठमेगोववासं काऊण पारिय पुणो एक्कहतरेण गच्छंतस्स किंचिणिमित्तेण छट्ठोववासो जादो। पुणो तेण छट्टोववासेण विहरंतस्स अट्ठमोववासो जादो। एवं दसमदुवालसादिक्कमेण हेट्ठा ण पदंतो जाव जीविदंतं जो विहरदि अवट्ठिदुग्गतवो णाम । एदं पि तवोविहाणं वीरियंतराइयक्खओवसमेण होदि। दोणं पि तवाणमुक्कट्ठफलं णिव्वुई, अवर' मरण नहीं होता। शंका-अघातायुष्क भी छह मास तक उपवास करनेवाले ही होते हैं, क्योंकि, इसके आगे संक्लेश भाव उत्पन्न हो जाता है ? समाधान- इसके उत्तरमें कहते हैं कि संक्लेश सहित और सोपक्रमायुष्क मुनियों के लिये यह नियम भले ही हो, किन्तु संक्लेश भावसे रहित निरुपक्रमायुष्क और तपके बलसे उत्पन्न हुए वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे संयुक्त तथा उसके बलसे ही असातावेदनीयके उदयको मन्द कर चुकनेवाले साधुओंके लिये यह नियम नहीं है, क्योंकि, उनमें इसका विरोध है। शंका-ऐसी शक्ति किसी महाजन अर्थात् श्रेष्ठ पुरुषके उत्पन्न होती है, यह कैसे जाना जाता है ? समाधान- इसी सूत्रसे ही यह जाना जाता है, क्योंकि, छह मासोंसे ऊपर उववासका अभाव माननेपर उग्रोग्र तप बन नहीं सकता। दीक्षाके लिये एक उपवास करके पारणा करे, पश्चात् एक दिनके अन्तरसे ऐसा करते हुए किसी निमित्तसे षष्ठोपवास हो गया। फिर उस षष्ठोपवाससे विहार करनेवालेके अष्टमोपवास हो गया। इस प्रकार दशम-द्वादशम आदिके क्रमसे नीचे न गिरकर जो जीवन पर्यंत विहार करता है वह अवस्थित उग्रतप ऋद्धिका धारक कहा जाता है। यह भी तपका अनुष्ठान वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे होता है। इन दोनों ही तपोंका उत्कृष्ट .......................................... १ प्रतिषु · विरहिणिरुवक्कमाउआणं ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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