SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 357
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १, ७१. संखेज्जवासाउअस्स तिसमयतब्भवत्थस्स पढमसमयआहारयस्स उक्कस्सजोगिस्स उक्कस्सिया संघादणकदी। तव्वदिरित्तस्स अणुक्कस्सा । एत्थ पंचिंदियणिद्देसो विगलिंदियपडिसेहफलो। अपज्जत्तजोगपडिसेहढें पज्जत्तगहणं । असण्णिजोगपडिसेहट्ठो सणिणिदेसो । णेरइएहितो आगंतूण तिरिक्ख-मणुस्सेसु उप्पण्णस्स उक्करससामित्तं होदि त्ति जाणावणटुं संखेजवासाउअस्से ति उत्तं । तदियसमयउक्कस्सएगताणुवड्विजोगग्गहणटुं तिसमयतब्भवत्थादिवयणं । उक्कस्सिया संघादणकदी केत्तिया ? एगसमयपबद्धमत्ता । ओरालियसरीरस्स उक्कस्सिया परिसादणकदी कस्स ? अण्णदरस्स मणुसस्स मणुसिणीए वा पंचिंदियतिरिक्खस्स पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीए वा सणिस्स पज्जत्तयस्स पुव्वकोडिआउअरस कम्मभूमियस्स वा कम्मभूमिपडिभागस्स वा । जेण पढमसमयतब्भवत्थप्पहुडि उक्करसेण जोगेण आहारिदं, उवकस्सियाए वड्डीए वड्डिदं, जो उक्करसाई जोगट्ठाणाई बहुसो पहुसो गच्छदि, जहण्णाई ण गच्छदि; तप्पाओग्गउक्कस्सजोगी बहुसो बहुसो होदि, पंचेन्द्रिय है, पर्याप्त है, संशी है, संख्यात वर्षकी आयुवाला है, तीसरे समयमें तद्भवस्थ हुआ है, तद्भवस्थ होने के प्रथम समयवती आहारक है एवं उत्कृष्ट योगवाला है, उसके उत्कृष्ट संघात नकृति होती है। इससे भिन्न जीवके अनुत्कृष्ट संघातनकृति होती है। यहां पंचेन्द्रिय पदका निर्देश विकलेन्द्रिय जीवोंका प्रतिषेध करनेके लिये किया है। अपर्याप्त योगका प्रतिषेध करनेके लिये पर्याप्त पदका ग्रहण किया है। असंशियोगका प्रतिषेध करनेके लिये संशी पदका निर्देश किया है। नारकियोंमेंसे आकर तिर्यंच व मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ जीव उत्कृष्ट स्वामी होता है, इस बातके बतलाने के लिये 'संख्यातवर्षायुष्कके' ऐसा कहा है । तृतीय समयवर्ती जीवके होनेवाले उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धियोगका ग्रहण करनेके लिये 'तृतीय समयवर्ती तद्भवस्थ' आदि पदका ग्रहण किया है । उत्कृष्ट संघातनकृति कितनी होती है ? एक समयप्रबद्ध प्रमाण होती है। औदारिक शरीर की उत्कृष्ट परिशातनकृति किसके होती है? जो कोई मनुष्य या मनुष्यनी अथवा पंचन्द्रिय तिवंच या पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिनी संज्ञी है, पर्याप्त है, पूर्वकोटि प्रमाण आयुवाला है, कर्मभूमिज है अथवा कर्मभूमिप्रतिभागमें उत्पन्न हुआ है। जिसने विवक्षित भवमें स्थित होने के प्रथम समयसे लंकर उत्कृष्ट योगके द्वारा आहार ग्रहण किया है, जो उत्कृष्ट वृद्धि से वृद्धिको प्राप्त हुआ है, जो उत्कृष्ट योगस्थानोंको बहुत बहुत बार प्राप्त होता है, जघन्य योगस्थानोंको प्राप्त नहीं होता; जो तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट १ अ-आप्रत्योः । तच्चवत्थादि', काप्रतौ तव्ववत्थादि' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy