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________________ ४, १, ४५.] कदिअणियोगद्दारे मदिणाणपरूवण! (१४९ ते च बहु-बहुविध क्षिप्रानिःसृतानुक्त ध्रुवेतरभेदेन द्वादशधा भवन्ति । तत्र बहुशब्दो हि संख्यावाची वैपुल्यवाची च । संख्यायामेकः द्वौ बहवः, वैपुल्ये बहुरोदनः बहुः सूप इति एतस्योभयस्यापि ग्रहणम्' । न बह्नवग्रहोऽस्ति, विज्ञानस्य प्रत्यर्थवशवर्तित्वादिति चेन्न, नगरवन-स्कंधावारेवनेकप्रत्ययोत्पत्तिदर्शनात् , बह्ववग्रहाभावे तन्निबन्धनबहुवचनप्रयोगानुपपत्तेः । न ह्येकार्थग्राहकेभ्यो ज्ञानेन्यो भूयसामर्थानां प्रतिपत्तिर्भवति, विरोधात् । किं च, यस्यैकार्थ एव नियमेन विज्ञानं तस्य किं पूर्वज्ञाननिवृत्ता उत्तरविज्ञानोत्पत्तिरनिवृत्तौ वा ? न द्वितीयः पक्षः, एकार्थमेकमनस्त्वादित्यनेन वाक्येन सह विरोधात् । नाद्यः, इदगस्मादन्यदित्यस्य वे चारों ज्ञान बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिःस्मृत, अनुक्त और ध्रुव तथा इनसे विपरीत एक, एकविध, अक्षिप्र, निःसृत, उक्त और अधुक्के भेदसे बारह प्रकार हैं । उनमें बहु शब्द संख्यावाची और वैपुल्यवाची है । संख्यामें एक, दो, बहुत और विपुलतामें बहुत ओदन व बहुत दाल, इस प्रकार इन दोनोंका भी ग्रहण है । शंका-बहुत पदार्थोका अवग्रह नहीं है, क्योंकि, विज्ञान प्रत्येक अर्थके वशवर्ती है ? समाधान - नहीं, क्योंकि नगर, वन व स्कन्धावार ( छावनी ) में अनेक पदार्थ विषयक प्रत्ययकी उत्पत्ति देखी जाती है। इसके अतिरिक्त बहु-अवग्रहके अभावमें उसके निमित्तसे होनेवाला बहु वचनका प्रयोग भी नहीं बन सकेगा। इसका कारण यह कि एक पदार्थके ग्राहक ज्ञानोंसे बहुत पदार्थोंका ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि, वैसा होने में विरोध है। ___ दूसरे, जिसके अभिप्रायसे नियमतः एक पदार्थमें ही विज्ञान होता है उसके यहां क्या पूर्व ज्ञानके हट जाने पर उत्तर ज्ञानकी उत्पत्ति होती है, अथवा उसके होते हुए? इनमें द्वितीय पक्ष तो बनता नहीं है, क्योंकि पूर्व ज्ञानके होते हुए उत्तर ज्ञान होता है,ऐसा माननेपर 'एक मन होनेसे ज्ञान एक पदार्थको विषय करनेवाला है इस वाक्यके साथ विरोध होगा। ( अर्थात् जिस प्रकार यहां एक मन अनेक प्रत्ययोंका आरम्भक है उसी प्रकार एक प्रत्यय अनेक पदार्थोको विषय करनेवाला भी होना चाहिये, क्योंकि, एक कालमें अनेक प्रत्ययोंकी १ प्रतिषु — बहुत्वोदनः ' इति पाठः । २ बहुशब्दस्य संख्या-वैपुल्यत्राचिनो ग्रहणमविशेषात् । संख्यावाची यथा- एकः द्वौ बह्व इति । वैपुल्यवाची यथा- बहुरोदनो बहुः सूपः इति । स. सि. १, १६. त. रा. १, १६, १. ३ प्रतिषु — टेकार्थे ग्राहकेभ्यो' इति पाठः। ४ बह्ववग्रहाद्यभावः प्रत्यर्थवशवर्तित्वादिति चेन्न, सर्वदेकप्रत्ययप्रसंगात् । स्यादेतप्रत्यर्थवशवर्ति विज्ञानं नानेकमर्थ गृहीतुमलम् । अतो बहुवग्रहादीनामभाव इति ? तन्न, किं कारणं; सर्वदैकप्रत्ययप्रसंगात् । यथारण्याटव्यां कश्चिदेकमेव पुरुषमवलोकयन्नानेक इत्यवैति, मिथ्याज्ञानमन्यथा स्यादेकत्रानेकबुद्धिर्यदि भवेत् तथा नगर-वन-स्कन्धावारावगाहिनोऽपि तस्येकप्रत्ययः स्यात् सार्वकालिकः। अतश्चानेकार्थग्राहिविज्ञानस्यात्यन्तासम्भवान्नगर-वन-स्कन्धावारप्रत्ययनिवृत्तिः, नैताः संज्ञा ोकार्थनिवेशिन्यः। तस्माल्लोकसंव्यवहारानिवृतिः। त. रा. १,१६, २. ध. अ. प.११६८, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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