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________________ २०२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १, १५.. २३२८००० । उपपादो जन्म प्रयोजनमेषां त इमे औपपादिकाः, विजय-वैजयन्त-जयन्तापराजित-सर्वार्थसिद्धयाख्यानि पंचानुत्तराणि, अनुत्तरेषु' औपपादिकाः अनुत्तरौपपादिकाः । ऋषिदास-धन्य-सुनक्षत्र-कार्तिक-नन्द-नन्दन-शालिभद्राभय-वारिषेण-चिलातपुत्रा इति एते दश वर्द्धमानतीर्थकरतीर्थे । एवमृषभादीनां त्रयोविंशतितीर्थेषु अन्येऽन्ये । एवं दश-दशानगाराः दारुणानुपसर्गान्निर्जित्य विजयाद्यनुत्तरेषूत्पन्ना इति । एवमनुत्तरौपपादिकाः दश अस्यां वर्ण्यन्त इति अनुत्तरौपपादिकदशा'। अस्यां सद्वानवतिलक्ष-चतुश्चत्वारिंशत्पदसहस्राणि ९२४४०००। प्रश्नानां व्याकरणं प्रश्नव्याकरणम् , तस्मिन् सत्रिनवतिलक्ष-षोडशपदसहस्रे ९३१६००० प्रश्नानष्ट-मुष्टि-चिन्ता-लाभालाभ-सुख-दुख-जीवित-मरण-जय-पराजय-नाम-द्रव्यायुस्संख्यानानि लौकिक-वैदिकानामर्थानां निर्णयश्च प्ररूप्यते, आक्षेपणी-विक्षेपणी-संवेदनी-निवेदन्यश्चेति हजार पद हैं २३२८०००। उपपाद अर्थात् जन्म ही जिनका प्रयोजन है वे औपपादिक कहलाते हैं । विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि, ये पांच अनुत्तर हैं। अनुत्तरों में उत्पन्न होनेवाले अनुत्तरौपधादिक कहे जाते हैं । ऋषिदास, धन्य, सुनक्षत्र, कार्तिक, नन्द, नन्दन, शालिभद्र, अभय, वारिषेण और चिलातपुत्र,ये दस वर्धमान तीर्थकरके तीर्थमें अनुत्तरोपपादिक हुए हैं। इसी प्रकार ऋषभादिक तेईस तीर्थंकरोंके तीर्थमें भिन्न भिन्न दस अनुत्तरौपपादिक हुए हैं । इस प्रकार दस दस अनगार भयानक उपसौको जीतकर विजयादिक अनुत्तरोंमें उत्पन्न हुए हैं। चूंकि इस प्रकार इसमें दस दस अनुत्तरौपपादिक अनगारोंका वर्णन किया जाता है अतः वह अनुत्तरौपपादिकदशांग कहलाता है। इसमें बानबै लाख चवालीस हजार पद हैं ९२४४००० । प्रश्नोंका व्याकरण अर्थात् उत्तर जिसमें हो वह प्रश्नव्याकरण है। तेरानबै लाख सोलह हजार ९३१६००० पद युक्त उसमें प्रश्नके आश्रयसे नष्ट, मुष्टि, चिन्ता, लाभ, अलाभ, सुख, दुख, जीवित, मरण, जय, पराजय, नाम, द्रव्य, आयु व संख्याकी तथा लौकिक एवं वैदिक अर्थोके निर्णयकी प्ररूपणा की जाती है। इसके अतिरिक्त आक्षेपणी, विक्षेपणी, १ प्रतिषु — अनुत्तरे ' इति पाठः । २त. रा. १,२०, १२. ( शब्दशः सदृशोऽयं प्रबन्धः प्रायशस्तत्र)। ष. खं. पु. १, पृ. १०३. अनुसरोववादियदसा णाम अंगं चउविहोवसग्गे दारुणे सहियूण चउवीसण्हं तित्थयराणं तित्थेसु अणुत्तरविमानं गदे बस दस मुणिवसहे वण्णेदि । जयध. १, पृ. १३०. गो. जी. जी. प्र. ३५७. अं. प. १, ५२-५५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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