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________________ १, १, १०.] कदिआणियोगद्वारे रिजुमदिपवणा मतिः । उज्मुवेण मणोगदं उज्जुवेण वचि-कायगदमत्थमुज्जुवं जाणतो तन्विवरीदमणुज्जुवमत्थमजाणतो मणपज्जवणाणी उजुमदि त्ति भण्णदे । अचिंतिदमणुत्तमणभिणइदमत्थं किमिदि ण जाणदे ? ण, विसिट्ठखओवसमाभावादो। मदिणाणेण वा सुदणाणेण वा मण-वचि-कायभेदं णादूण पच्छात्तत्थट्ठिदमत्थं पच्चक्खेण जाणंतस्स मणपज्जवणाणस्स दव्व-खेत्त-कालभावभेएण विसओ चउव्विहो । तत्थ उज्जुमदी एगसमइयमोरालियसरीरस्स णिज्जरं जहण्णेण जाणदि। सा तिविहा जहण्णुक्कस्स-तव्वदिरित्तओरालियसरीरणिज्जरा ति । तत्थ कं जाणदि ? तव्वदिरित्तं । कुदो ? सामण्णणिद्देसादो । उक्कस्सेण एगसमइयमिंदियणिज्जरं वचनगत व कायगत ऋजु अर्थको जाननेवाला, और उससे विपरीत वक्र अर्थको न जाननेघाला मनःपर्ययज्ञानी ऋजुमति कहा जाता है । शंका - ऋजुमति मनःपर्ययज्ञानी मनसे अचिन्तित, वचनसे अनुक्त और अनभिनीत अर्थात् शारीरिक चेष्टाके अविषयभूत अर्थको क्यों नहीं जानता है ? समाधान-- नहीं जानता, क्योंकि, उसके विशिष्ट क्षयोपशमका अभाव है। मतिक्षान अथवा श्रुतज्ञानसे मन, वचन व कायके भेदको जानकर पीछे वहां स्थित अर्थको प्रत्यक्षसे जाननेवाले मनःपर्ययज्ञानका विषय द्रव्य, क्षेत्र, काल व भावके भेदसे चार प्रकार है। इनमें ऋजुमति मनःपर्ययज्ञान जघन्यसे एक समय सम्बन्धी औदारिक शरीरकी निर्जराको जानता है । शंका-वह औदारिक शरीरकी निर्जरा जघन्य, उत्कृष्ट और तद्व्यतिरिक्तके भेदसे तीन प्रकार है। उनमेंसे किस निर्जराको वह जानता है ? समाधान- तद्व्यतिरिक्त औदारिक शरीरकी निर्जराको जानता है, क्योंकि, यहां सामान्य निर्देश है। उक्त ज्ञान उत्कर्षसे एक समय सम्बन्धी इन्द्रियनिर्जराको जानता है। .................. १ रिउ सामन्नं तम्मत्तगाहिणी रिउमई मणोनाणं । पायं विसेसविमुहं घडमेतं चिंतियं मुणइ । प्रवचनसारोद्धार १४९९. २ प्रतिषु — मउत्त' इति पाठः । ३ यः कार्मणद्रव्यानन्तभागोऽन्यः सर्वावधिना ज्ञातस्तस्य पुनरनन्तभागीकृतस्यान्यो भागः ऋजुमतेविषयः | स. सि. १, २४. अवरं दवमुरालियसरीरणिज्जिण्णसमयबद्धं तु । चक्खिदियणिज्जिण्णं उक्करसं उजु. मादिस्स हवे ॥ गो. जी. ४५१. तत्थ दव्वओ णं उज्जुमई णं अणते अणंतपएसिए खंधे जाणइ पासइ ।। नं. सू. १८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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