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________________ छक्खंडागमे अयणाखंडं [१, १, १४० (णमो अटुंगमहाणिमित्तकुसलाणं ॥ १४ ॥ अंग-सर-वंजण-लक्खण-छिण्ण-भौम-सुमिणंतरिक्खाणि महाणिमित्ताणमट्ठअंगाणि । उत्तं च ___ अंग सरो वंजण-लक्खणाणि छिण्णं च भौम्म सुमिणंतरिक्खं । एदे णिमित्तेहि य राहणिज्जा' जाणंति लोयस्स सुहासुहाई ॥ १९ ॥ (तत्थ अंगगयमहाणिमित्तं णाम मणुस-तिरिक्खाणं सत्त-सहाव-वाद-पित्त-सेंभ-रसरुधिर-मास-मेदहि-मज्ज-सुक्काणि सरीरवण्ण-गंध-रस-फासणिण्णुण्णदाणि जोएदूण जीविद-मरणसुह-दुख-लाहालाह-पवासादिविसयावगो' । खर-पिंगलोलूव-वायस सिव-सियाल-णर-णारीसरं सोऊण लाहालाह-सुह-दुक्ख-जीविद-मरणादीणं अवगमो सरमहाणिमित्तं णाम । तिल-याणूगे अष्टांग महानिमित्तोंमें कुशलताको प्राप्त जिनोंको नमस्कार हो ॥ १४ ॥ ___ अंग, स्वर, व्यञ्जन, लक्षण, छिन्न, भौम, स्वप्न और अन्तरिक्ष, ये महानिमित्तोंके आठ अंग हैं । कहा भी है अंग, स्वर, व्यञ्जन, लक्षण, छिन्न, भौम, स्वप्न और अन्तरिक्ष, इन निमित्तोंसे आराधनीय साधु जनसमुदायके शुभाशुभको जानते हैं ॥ १९ ॥ उनमें मनुष्य और तिर्यंचोंके वात, पित्त व कफ व रस, रुधिर, मांस, मेदा, अस्थि, मज्जा, एवं शुक्र सत्व स्वभाव रूप, तथा शरीरके निम्न व उन्नत वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शको देखकर जीवित, मरण, सुख, दुख, लाभ, अलाभ और प्रवासादि विषयक ज्ञान अंगगत महानिमित्त है । खर, पिंगल, [नेवला, बन्दर या सर्पविशेष ] उल्लू, काक, शिवा, शृगाल, नर और नारीके स्वरको सुनकर लाभालाभ, सुख दुख और जीवित-मरणादिको जानना स्वरमहानिमित्त कहा जाता १ अप्रतौ ' राणिहिज्जा',.आप्रतौ ' राणिहिच्चा', काप्रतौ ' राहिणिच्चा' इति पाठः । २ अप्रतौ · सत्त सहावाद ' इति पाठः। ३ वातादिप्पगिदीओ रुहिरप्पहुदिस्सहावसत्ताई। णिण्णाण उण्णयाणं अंगोवंगाण दंसणा पासा ॥ गरतिरियाणं दहें जं जाणइ दुक्ख-सोक्ख-मरणाई । कालत्तयणिप्पाणं अंगणिमित्तं पसिद्धं तु ॥ ति. प. ४, १००६१.०७. अंग-प्रत्यंगदर्शनादिभिस्त्रिकालभाविसुख-दुःखादिविभावन मंगम् । त. रा. ३, ३६, २. ३ णर-तिरियाण विचित्तं सद्दे सोदण दुक्ख सोक्खाई। कालत्तयणिप्पण्णं जे जाणद तं सरणिमित्तं ॥ ति.प.४, १००८. अक्षरानक्षरशुभाशुभशब्दश्रवणेनेष्टानिष्टफलाविर्भावनं महानिमित्तं स्वरम् । त. रा. ३.३६, २. ५ प्रतिषु 'तिलयाणंग-' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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