Book Title: Shatkhandagama Pustak 09
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१९८] छक्खंडागमे येयणाखंड
[१, १, ७१. लोगस्स असंखेज्जदिभागे । वेउव्वियमिस्सकायजोगीणं देवभंगो । आहार-आहारमिस्सति-चत्तारिपंदा लोगस्स असंखेजदिभागे । कम्मइयकायजोगीसु ओरालियपरिसादणकदी केवलिभंगो । तेजा-कम्मइय-संघादणपरिसादणकदी सव्वलेोगे।
इत्थिवेदस्स पंचिंदियतिरिक्खभंगो । एवं पुरिसवेदस्स । णवरि अस्थि आहारतिण्णिपदा । णउसयवेदस्स तिरिक्खभंगो । अवगदवेदेसु ओरालियपरिसादणकदी तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी लोगस्स असंखेज्जदिमागे असंखेजेसु वा भागेसु सव्वलोगे वा । ओरालियसंघादण-परिसादणकदी तेजा-कम्मइयपरिसादणकदी लोगस्स असंखेज्जदिभागे । एवमकसायकेवलणाण-केवलदंसण-जहाक्खादाणं । चदुकसायाणं कायजोगिभंगो। णवरि ओरालियपरिसादणं लोगस्स असंखेज्जदिभागे।
मदि-सुदअण्णाणीणं तिरिक्खभंगो । एवमसंजद-किण-णील-काउलेस्सिय-अभवसिद्धिय
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असंख्यातवें भागमें रहते हैं। वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंकी प्ररूपणा देवोंके समान है। आहारकाययोगियों में औदारिकशरीरकी परिशातनकृति और आहारक, तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृति, इस प्रकार तीन पद; तथा आहारकमिश्रकाययोगियों में इन तीन पदोंके साथ आहारकशरीरकी संघातनकति, इस प्रकार चार पद युक्त जी असंख्यातवें भागमें रहते हैं। कार्मणकाययोगियों में औदारिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीवोंकी प्ररूपणा केवली जीवोंके समान है । इनमें तैजस व कार्मणशरीरकी संघातनपरिशातनकृति युक्त जीव सब लोकमें रहते हैं।
स्त्रीवेदियोंकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके समान है । इसी प्रकार पुरुषवेदियोंके भी कहना चाहिये । विशेष इतना है कि इनके आहारकशरीरके तीनों पद होते हैं । नपुंसकवेदियोंकी प्ररूपणा तिर्यंचोंके समान है । अपगतवेदियोंमें औदारिकशरीरकी परिशातनकृति तथा तैजस व कार्मण शरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव लोकके असंख्यातवें भागमें, असंख्यात बहुभागोंमें अथवा सर्व लोकमें रहते हैं। उक्त जीवों में औदारिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृति तथा तैजस व कार्मणशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं। इसी प्रकार अकषायी, केवलशानी, केवलदर्शनी और यथाख्यातशुद्धिसंयत जीवोंके कहना चाहिये। चार कषाय युक्त जीवोंकी प्ररूपणा काययोगियोंके समान है। विशेष इतना है कि उनमें औदारिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं।
मति और श्रुत अज्ञानी जीवोंकी प्ररूपणा तिर्यंचोंके समान है। इसी प्रकार असंयत, कृष्ण, नील व कापोतलेश्यावाले, अभव्यसिद्धिक, मिथ्यादृष्टि और असंही
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१ अप्रतौ ' आहारमि० चिचचत्तारि ' इति पाठः ।
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