________________
१, १, ७१.] कदिअणियोगदारे करणकदिपरूवणा
[४४१ संखेज्जगुणा । संघादणपरिसादणकदी विसेसाहिया। ओरालियपरिसादणकदी विसेसाहिया । संघादणकदी संखेज्जगुणा । तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी विसेसाहिया । मणुसअपज्जत्ताणं पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो ।
एइंदिय-बादरेइंदियाणं तेसिं पज्जत्ताणं च तिरिक्खोघ । बादरेइंदियअपजत्त-सव्वसुहुमसव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज्जत्त-सव्वपुढवीकाइय-सव्वआउकाइय- बादरतेउकाइय-बादरवाउकाइयअपज्जत-सव्वसुहुमतेउकाइय-वाउकाइय-सव्ववणप्फदि-सव्वणिगोद-सव्ववणप्फदिपत्तेयसरीर-तसअपज्जत्ताणं पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो । पंचिंदियाणं' ओघ । णवरि जम्हि अणतगुणं तम्हि असंखज्जगुणं कायव्वं । अधवा, वेउव्वियसंघादणादो ओरालियसंघादणकदी असंखेज्जगुणा । वेउव्वियसंघादण-परिसादणकदी असंखेज्जगुणा ।
पंचिंदियपज्जत्तएसु सव्वत्थोवा आहारसंघादणकदी। परिसादणकदी संखेज्जगुणा । .
उसीकी परिशातनकृति युक्त जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे उसीकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं। उनसे औदारिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं । उनसे उसीकी संघातनकृति युक्त जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे तैजस और कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं। मनुष्य अपर्याप्तोंकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तोंके समान है।
एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय और उनके पर्याप्तोंकी प्ररूपणा तिर्यंच ओघके समान है। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सब सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, सब पृथिवीकायिक, सब जलकायिक, बादर तेजकायिक व बादर वायुकायिक अपर्याप्त,सब सूक्ष्म तेजकायिक, सब सूक्ष्म वायुकायिक, सब वनस्पतिकायिक, सब निगोद, सब वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर तथा त्रस अपर्याप्तोंकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तोंके समान है। पंचेन्द्रियोंकी प्ररूपणा ओघके समान है । विशेष इतना है कि जहांपर अनन्तगुणा है वहांपर असंख्यातगुणा करना चाहिये । अथवा, उनमें बैंक्रियिकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीवोंसे औदारिकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं । उनसे वैक्रियिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं ।
पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों में आहारकशरीरकी संधातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे उसीकी परिशातनकृतियुक्त जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे उसीकी संघातन-परि
१ प्रतिषु · मणुसअसणि पंचिंदिय- ' इति पाठः। २ प्रतिषु · वाउ० अप्प. ' इति पाठः । ३ अ-आप्रत्योः · पंचिं० ', काप्रती · पंचिंदिय० ' इति पाठः।
अ.क. ५६.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org