Book Title: Shatkhandagama Pustak 09
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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५, १, ७१.] कदिणियोगद्दारे करणकदिपस्यणा संघादण-परिसादणकदी केवडिखेते ? लोगस्स असंखेज्जदिमागे । एवं सत्तसु पुढवीसु सबदेवेसु च । तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु ओरालियसंधादण-संघादणपरिसादणकदी तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी केवडिखेत्ते ? सवलोगे । ओरालियपरिसादणकदी वेउव्वियतिण्णिपदा केवडिखेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे ।
पंचिंदियतिरिक्खतिगस्स ओरालिय-वेउब्वियतिण्णिपदा तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी केवडिखेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे । पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तेसु ओरालियसंघादणकदी ओरालिय-तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी केवडिखेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे।
मणुसतिगेसु ओरालियपरिसादणकदी तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी ओघो । सेसपदा लोगस्स असंखेज्जदिभागे । णवरि मणुसिणीसु आहारपदं णस्थि । मणुसअपज्जत्ताणं पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो।
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शातनकृतिवाले जीव तथा तैजस और कार्मण शरीरकी संघातन-परिशातनकृतिवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें और सब देवोंमें जानना चाहिये।
तिर्यंचगतिमें तिर्यंचोंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृति और संघातन-परिशातनकृतिवाले जीव तथा तैजसशरीरकी और कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सब लोकमें रहते हैं। औदारिकशरीरकी परिशातनकृतिवाले और वैक्रियिकशरीरके तीन पदवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र में रहते हैं।
पंचेन्द्रिय तिर्यंच आदि तीनके औदारिक और वैक्रियिक शरीरके तीन पद तथा तैजस व कार्मण शरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं। उक्त जीव लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं। पंचेन्द्रिय तिर्येच अपर्याप्तोंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृति तथा औदारिक, तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ।
मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में औदारिकशरीरकी परिशासनकृति तथा तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीवोंकी प्ररूपणा ओघके समान है। शेष पद युक्त जीव लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं। विशेष इतना है कि मनुष्यनियोंमें आहारक पद नहीं होता। मनुष्य अपर्याप्तोंकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तोंके समान है।
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