Book Title: Shatkhandagama Pustak 09
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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७, १, ६७. ]
कदिअणियोगद्दारे गंधक दिपरूवणा
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भावश्रुतग्रन्थः । नैयायिक-वैशेषिक लोकायत-सांख्य-मीमांसक बौद्धादिदर्शनविषयबोधः सामोयिकभावश्रुतग्रन्थः । एदेसिं सदपबंधणा' अक्खरकव्वादीणं जा च गंथरयणा अक्षरकाव्यै - र्ग्रन्थरचना प्रतिपाद्यविषया सा सुदगंथकदी णाम ।) जा सा णोदगंथकदी सा दुविहा अभंतरिया बाहिरा चेदि । तत्थ अब्भंतरिया मिच्छत्त-तिवेद-हस्स-रदि - अरदि-सोग-भयदुर्गुछा - कोह- माण- माया - लोहभेएण चोद्दसविहा । बाहिरिया खेत्त-वत्धु-घणघण्ण-दुवय-चउप्पय- जाण-सयणासण- कुम्प - भंडभेएण दसविहा' । कथं खेत्तादीणं भावगंथसण्णा ? कारणे कज्जोवारादो । ववहारणयं पटुच्च खेत्तादी गंथो, अब्भंतरगंथकारणत्तादो । एदस्स परिहरणं णिग्गंथत्तं । णिच्छयणयं पडुच्च मिच्छत्तादी गंथो, कम्मबंधकारणत्तादो । तेसिं परिच्चागो
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है। तथा नैयायिक, वैशेषिक, लोकायत, सांख्य, मीमांसक और बौद्ध, इत्यादि दर्शनोंको विषय करनेवाला बोध सामायिक भावश्रुत ग्रन्थकृति है । इनकी शब्दसन्दर्भ रूप अक्षरकाव्यों द्वारा प्रतिपाद्य अर्थको विषय करनेवाली जो ग्रन्थरचना की जाती है वह श्रुतग्रन्थकृति कही जाती है ।
नोतग्रन्थकृति दो प्रकारकी है। आभ्यन्तर और बाह्य । उनमेंसे आभ्यन्तर नोतग्रन्थकृति मिथ्यात्व, तीन वेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, क्रोध, मान, माया और लोभ के भेद से चौदह प्रकारकी है । बाह्य नोश्रुतग्रन्थकृति क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद, यान, शयन, आसन, कुप्य और भाण्डके भेदसे दस प्रकारकी है ।
शंका- क्षेत्रादिकोंकी भावग्रन्थ संज्ञा कैसे हो सकती है ?
समाधान --- कारण में कार्यका उपचार करनेसे क्षेत्रादिकों की भावग्रन्थ संज्ञा बन जाती है |व्यवहारनयकी अपेक्षा क्षेत्रादिक ग्रन्थ हैं, क्योंकि, वे अभ्यन्तर ग्रन्थके कारण हैं और इनका त्याग करना निर्ग्रन्थता है । निश्चय नयकी अपेक्षा मिथ्यात्वादिक ग्रन्य हैं, क्योंकि, वे कर्मबन्धके कारण हैं और इनका त्याग करना निर्ग्रन्थता है । नैगम नयकी
१ प्रतिषु ' सत्यपबंधणा ग्रन्थरचना अक्खर ' इति पाठः ।
२ मिळत वेदरांगा व हस्सादिया य दोसा । चचारि तह कसाया चोदस अद्भुतरा गंथ ॥ खेते वत्थु धणं-धंण्णंगदं दुपद-चंप्पदगदं च । जान-संयणासगाणि यं कुप्पे भंडेल दस होति । मूला. ५, २१०-११.
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