Book Title: Shatkhandagama Pustak 09
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
१, १, ७१.] कदिअणियोगहारे करणकदिपरूवणा
[३३५ अस्थि, परिसदंता वि अस्थि; उभयत्थ जीवपदेससंभवादो। तदो एत्थ संघादणकदी ण जुज्जद, किंतु संघादण-परिसादणकदी चेव एत्थ होदि; दोणं पि उवलंभादो त्ति ? ण एस दोसो, मूलसरीरादो पुधभूद सरीरम्मि विउव्वमाणम्मि परिसादणकदीए विणा संघादणकदी चेव त्ति कष्ट संघादणत्तब्भुवगमादो । सेस सुगमं ।
वेउव्वियसरीरस्स उक्कस्सिया परिसादणकदी कस्स ? अण्णदरस्स मणुसस्स मणुस्सिणीए वा पंचिंदियतिरिक्खस्स पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीए वा सण्णिस्स पज्जत्तयस्स पुव्वकोडाउअस्स कम्मभूमियस्स वा कम्मभूमिपडिभागस्स वा । जेण पढमसमयउत्तरविउविदप्पहुडि उक्कस्सेण जोगेण आहारिदं, उक्कस्सियाए वड्डीए वड्ढिवं, हेडिल्लीणं हिदी] णिसेयस्स जहण्णपदमुवरिल्लीणं द्विदीण णिसेयस्स उक्कस्सपदं, अंतोमुहुत्तजीविदावसेसे जोगट्ठाणाणमुवरिल्ले अद्ध अंतोमुत्तमच्छिदो, चरिमे जीवगुणहाणिहाणंतरे आवलियाए असंखेज्जदिभागमच्छिदो, दुचरिमसमए उक्कस्सजोगं गदो, चरिमे समए उत्तरं विउव्विदों, सव्वलहुं जीवपदेसे णिच्छुभदि, सव्वचिरं उत्तरं विउव्विदो; तस्स पढमसमयणियत्तस्स उक्कस्सजोगिस्स उक्कस्सिया परिसादणकदी । तव्वदिरित्ता अणुक्कस्सा ।
उनकी निर्जरा भी होती है, क्योंकि, दोनों शरीरों में जीवप्रदेशोंकी सम्भावना है । इस कारण वैक्रियिक शरीरकी संघातनकृति नहीं बनती। किन्तु इसकी संघातन-परिशातनकृति ही होती है, क्योंकि, दोनों ही एक साथ पायी जाती है।
समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, मूल शरीरसे पृथग्भूत शरीरकी विक्रिया करनेपर परिशातनकृतिके विना संघातनकृति ही होती है, ऐसा मानकर संघा. तनता स्वीकार की गई है । शेष प्ररूपणा सुगम है।
वैक्रियिक शरीरकी उत्कृष्ट परिशातनकृति किसके होती है ? जो कोई मनुष्य या मनुष्यनी अथवा पंचेन्द्रिय तिर्यंच या पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिनी संज्ञी है, पर्याप्त है, पूर्वकोटि प्रमाण आयुसे संयुक्त है, कर्मभूमिज है अथवा कर्मभूमिके प्रतिभागमें रहनेवाला है। जिसने उत्तर शरीरकी विक्रिया करने के प्रथम समयसे लेकर उत्कृष्ट योगके द्वारा आहार ग्रहण किया है, उत्कृष्ट वृद्धिसे जो वृद्धिको प्राप्त हुआ है, जो अधस्तन स्थितियोंके निषेकका जघन्य पद करता है, उपरिम स्थितियोंके निषेकका उत्कृष्ट पद करता है, अन्त. मुहूर्त मात्र जीवितके शेष रहनेपर योगस्थानोंके उपरिम भागमें अन्तर्मुहूर्त काल तक रहता है, अन्तिम जीवगुणहानिस्थानके मध्य में आवलोके असंख्यातवें भाग काल तक रहता है, द्विचरम समयमें उत्कृष्ट योगको प्राप्त होता है, चरम समयमें उत्तर शरीरकी विक्रिया करता है, सर्वलघु काल में जीवप्रदेशोंका निक्षेपण करता है, तथा जो सर्वीचर कालमें उत्तर शरीरकी विक्रिया करता है; उस प्रथम समय निवृत्त उत्कृष्ट योगीके उत्कृष्ट परिशातनकृति होती है। इससे विपरीत अनुत्कृष्ट परिशातनकृति है।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org