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१, १, ७१. दिणियोगदारे करणकदिपावणी (२१॥ दियलंभे पदिदस्से त्ति किमर्से उच्चदे' १ ण, पढमलंभे सव्वजहण्णुववादजोगाणुवलंभादो ।
पत्तेयसरीरस्से ति संतकम्मपयडिपाहुडवयणं पुचकोडायुगचरिमसमए उक्कस्ससामित्तणिद्देसो च सुत्तविरुद्धो त्ति' णाणायरो कायव्वो, दोण सुत्ताणं विरोहे संते त्थप्पावलंबणस्स णाइयत्तादो । सेस सुगमं ।
ओरालियसरीरस्स जहणिया परिसादणकदी कस्स ? अण्णदरस्स बादरवाउजीवस्स, जेण पढमसमयतब्भवत्थप्पहुडि जहण्णएण जोगेण आहारिदं, जहणियाए वड्डीए वविदं, जहण्णाई जोगट्ठाणाई बहुसो बहुसे। जो गच्छदि', उक्कस्साई ण गच्छदि तप्पाओग्गजहण्णजोगी बहुसो बहुसो होदि, तप्पाओग्गउक्कस्सजोगी बहुसो वहुसो ण होदि; हेडिल्लीणं हिदीणं जिसेगस्स उक्कस्सपदं, उवरिल्लीण हिदीणं णिसेयस्स जहण्णपदं, जो सव्वलहुं पञ्जत्तिं गदो, सव्वलहुं उत्तरं विउव्विदो, सबचिरेण कालेण जीवपदेसे णिछुहदि, सव्वचिरेण
शंका - 'अनादिलम्भमें पतित' यह किसलिये कहा जाता है ?
समाधान - यह ठीक नहीं है, चूंकि प्रथम लम्भमें सर्व जघन्य उपपादयोग नहीं पाया जाता अतः 'अनादिलम्भमें पतित' ऐसा कहा गया है।
'प्रत्येकशरीरके' यह सत्कर्मप्रकृतिप्राभृतका वचन और पूर्वकोटि प्रमाण आयुके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट स्वामित्वका निर्देश, ये दोनों वचन चूंकि सूत्रविरुद्ध है; इसलिये इनका अनादर नहीं करना चाहिये, क्योंकि, दो सूत्रोंके मध्यमें विरोध होनेपर चुप्पीका अवलम्बन करना ही न्याय्य है। शेष प्ररूपणा सुगम है।
औदारिक शरीरकी जघन्य परिशातनकृति किसके होती है ? जिस बादर बायुः कायिक जीवने उस भवमें स्थित होने के प्रथम समयसे लेकर जघन्य योगके द्वारा आहार प्रहण किया है, जो जघन्य वृद्धिसे वृद्धिको प्राप्त हुआ है, जो जघन्य योगस्थानोंको बहुत बहुत बार प्राप्त होता है, उत्कृष्ट योगस्थानोंको नहीं प्राप्त होता; उसके योग्य जघन्ययोगी बहुत बहुत बार होता है, उसके योग्य उत्कृष्टयोगी बहुत बहुत बार नहीं होता; अधस्तन स्थितियोंके निषेकके उत्कृष्ट पदको करता है, उपरितन स्थितियोंके निषकके जघन्य पदको करता है, जो सर्वलघु कालमें पर्याप्तिको प्राप्त होता है, सर्वलघु कालमें उत्तर शरीरकी विक्रियाको समाप्त कर लेता है, सर्वचिर कालसे जीवप्रदेशोंका निक्षेपण करता है, सर्व
१ अप्रतौ ' -उच्चदै णांपढम' इति पाठः । २ प्रतिषु । -णिद्देसा च सुत्तविरोधा क्ति' इति पाठः । ३ काप्रती · जो गच्छदि ' इत्येतस्य स्थाने 'आगच्छदि ' इति पाठ ।
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