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१, १, ७१.] कदिअणियोगदारे करणकदिपरूवणा
[ ३२९ एदासिं संघादणकदी णत्थि, बंध-संतोदयविहिदसिद्धाणं बंधकारणाभावादो । एदाओ सव्वाओ तेजा-कम्मइयसरीरमूलकरणकदीओ त्ति भणंति ।
एदेहि सुत्तेहि तेरसण्हं मूलकरणकदीणं संतपरूवणा कदा ॥७१॥
पुणो एदेण देसामासियसुत्तेण सूइदअहियाराणं परूवणा कीरदे । तं जहापदमीमांसा-सामित्तमप्पाबहुअं चेदि तिण्णि अहियारा होंति, एदेहि विणा संताणुववत्तीदो । तत्थ पदमीमांसा उच्चदे। तं जहा- ओरालियसरीरस्स संघादणकदी अस्थि उक्कस्सा अणुक्कस्सा जहण्णा अजहण्णा च । एवं परिसादण-तदुभयकदीयो उक्कस्साओ अणुक्कस्साओ जहण्णाओ अजहण्णाओ च अस्थि । एवं सेससरीराणं पि वत्तव्वं । पदमीमांसा गदा ।
सामित्तं उच्चदे- ओरालियसरीरस्स उक्कस्ससंघादणकदी कस्स ? अण्णदरस्स मणुसस्स मणुसणीए वा तिरिक्खस्स तिरिक्खजोणिणीए वा पंचिंदियस्स पज्जत्तस्स सण्णिस्स
दोनों पाये जाते हैं। इन दोनों शरीरोंकी संघातनकृति नहीं होती, क्योंकि बन्ध, सत्त्व और उदयसे रहित सिद्ध जीवोंके बन्धके कारणोंका अभाव है । अतः उनके इन शरीरोंका नवीन बन्ध सम्भव नहीं है। ये सब तैजसशरीर और कार्मणशरीर मूलकरणकृतियां हैं, ऐसा जानना चाहिये।
इन सूत्रों द्वारा तेरह मूल करणकृतियोंकी सत्प्ररूपणा की गई है ॥ ७१ ॥
अब इस देशामर्शक सूत्र द्वारा सूचित होनेवाले अधिकारोंकी प्ररूपणा की जाती है । यथा-पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व, ये तीन अधिकार और हैं, क्योंकि, इनके बिना सत्प्ररूपणा नहीं बनती। उनमेंसे सर्व प्रथम पदमीमांसा अधिकारका कथन करते हैं। वह इस प्रकार है- औदारिकशरीरकी संघातनाति उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य चारों प्रकारकी होती है। इसी प्रकार परिशातन और तदुभय कृतियां उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्यके भेदसे चार प्रकारकी होती हैं। इसी प्रकार शेष शरीरोंकी पदमीमांसाका भी कथन करना चाहिये । पदमीमांसा समाप्त हुई।
विशेषार्थ-पदमीमांसा प्रकरणमें उत्कृष्ट आदि पदोंका विचार किया जाता है। पहले औदारिकशरीर संघातनकृति आदि जिन तेरह कृतियोंका निर्देश कर आये हैं उनमें से प्रत्येकके उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य, ये चारों पद सम्भव हैं; ऐसा यहां जानना चाहिये।
अब स्वामित्व अधिकारका कथन करते हैं- ओदारिक शरीरकी उत्कृष्ट संघातनकृति किसके होती है ? जो कोई मनुष्य या मनुष्यनी अथवा तिर्यंच या तिर्यंचयोनिनी छ, ४२.
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