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४, १,६८.1 कदिअणियोगदारे करणकदिपावणा मूलुत्तरकरणेहिंतो वदिरित्तकरणाभावादो । तं जहा- करणेसु जं पढमं करणं पंचसरीरप्पयं तं मूलकरण । कथं सरीरस्स मूलत्तं ? ण, सेसकरणाणमेदम्हादो पउत्तीए सरीरस्स मूलत्तं पति विरोहाभावादो । जीवादो कत्तारादो अभिण्णत्तणेण कत्तारत्तमुपगयस्स कथं करणत्तं १ णा, जीवादो सरीरस्स कथंचि भेदुवलंभादो। अभेदे वा चेयणत्त-णिच्चत्तादिजीवगुणा सरीरे वि होति । ण च एवं, तहाणुवलंभादो। तदो सरीरस्स करणतं ण विरुज्झदे । सेसकारयमावे सरीरम्मि संते सरीरं करणमेवेत्ति किमिदि उच्चदे ? ण एस दोसो, सुत्ते करणमेवे ति अवहारणाभावादो।
सा च मूलकरणकदी ओरालिय-वेउब्बिय-आहार-तेया-कम्मइयसरीरभेएण पंचविहा
कहा है। वह दो प्रकारकी है, क्योंकि, मूल और उत्तर करणको छोड़कर अन्य करणोंका अभाव है । यथा- करणों में जो पांच शरीर रूप प्रथम करण है वह मूल करण है।
शंका-शरीरके मूलपना कैसे सम्भव है ?
समाधान- चूंकि शेष करणोंकी प्रवृति इस शरीरसे होती है अतः शरीरको मुल करण माननेमें कोई विरोध नहीं आता।
शंका-कर्ता रूप जीवसे शरीर अभिन्न है, अतः कर्तापनेको प्राप्त हुए शरीरके करणपना कैसे सम्भव है ?
समाधान-यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, जीवसे शरीरका कथंचित् भेद पाया जाता है । यदि जीवसे शरीरको सर्वथा अभिन्न स्वीकार किया जाये तो चेतनता और निस्यत्व आदि जीवके गुण शरीरमें भी होने चाहिये । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, शरीरमें इन गुणोंकी उपलब्धि नहीं होती। इस कारण शरीरके करणपना विरुद्ध नहीं है।
शंका-शरीरमें शेष कारक भी सम्भव हैं । ऐसी अवस्थामें शरीर करण ही है, ऐसा क्यों कहा जाता है ?
समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, सूत्रमें 'शरीर करण ही है' ऐसा नियत नहीं किया गया है।
वह मूलकरणकृति औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण शरीर
१प्रतिषु : सेसकारियभावे ' इति पाठः।
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