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छक्खंडागमे वेयणाखंड
[१, १, ६६. जेणेदं सुत्तं देसामासिय तेणेत्थ धण-रिण-धणरिणगणिदं सव्वं वत्तव्वं । संकलणावग्ग-वग्गावग्ग-घण-घणाघणरासिउप्पत्तिणिमित्तगुणयारो कलासवण्णा' जाव ताव भेयपइण्णयजाईओ तेरासिय-पंचरासियादि सव्वं धणगणिदं । वोकलणा भागहारो खयकं च कलासवणादिसुत्त. पडिबद्धसंखा' च रिणगणिदं । गइणिवित्तिगणिद कुट्टाकारादिगणिदं च धण-रिणगणिदं । एवं तिविहं पि गणिदमेत्थ परुवेदव्वं ।
अधवा कदिमुवलक्खण काऊण गणणा-संखेज्ज-कदीणं पि एत्थ लक्खणं वत्तव्वं । तं जहा- एक्कादि कादूण जाव उक्कस्साणते त्ति ताव गणणा त्ति वुच्चदे । दोआदि कादूण जाउक्कस्साणंते ति जा गणणा संखेज्जमिदि भण्णदे । तिण्णिआदि कादूण जाउक्कस्साणते त्ति गणणा कदि त्ति भण्णदे । वुत्तं च
एयादीया गणणा दोआदीया वि जाण संखे त्ति । तीयादीण णियमा कदि त्ति सण्णा दु बोद्धव्या ॥ १२१ ॥
चूंकि यह सूत्र देशामर्शक है अत एव यहां धन, ऋण और धन-ऋण गणित सबको कहना चाहिये । संकलना, वर्ग, वर्गावर्ग, घन व घनाघन राशियोंकी उत्पत्तिमें निमित्तभूत गुणकार और कलासवर्ण तक भेदप्रकीर्णक जातियां (देखो गणितसारसंग्रह द्वितीय कलासवर्ण व तृतीय प्रकीर्णक व्यवहार), त्रैराशिक व पंचराशिक आदि सब धनगणित हैं। व्युत्कलना, भागहार और क्षय रूप कलासवर्ण आदि सूत्रप्रतिबद्ध संख्यायें ऋणगणित है। गतिनिवृत्तिगणित और कुट्टिकार आदि गणित धन-ऋणगणित है । इस प्रकार तीनों ही प्रकारके गणितकी यहां प्ररूपणा करना चाहिये ।
अथवा कृतिका उपलक्षण कर गणना, संख्यात व कृति, इनका भी यहां लक्षण कहना चाहिये । वह इस प्रकार है
एकको आदि करके उत्कृष्ट अनन्त तक 'गणना' कही जाती है। दोको आदि करके उत्कृष्ट अनन्त तककी गणना' संख्यात' कहलाती है। तीनको आदि करके उत्कृष्ट अन तककी गणना 'कृति' कहलाती है। कहा भी है
एक आदिकको गणना और दो आदिको संख्या समझो। तथा तीन आदिककी नियमसे ' कृति ' यह संज्ञा जानना चाहिये ॥ १२१ ॥
१ प्रतिषु , कलासवण्णणा ' इति पाठः । भाग-प्रभागावथ भागभागो भागानुबन्धः परिकीर्तितोऽतः । भागापवाहः सह भागमात्रः षङ्जातयाऽमुत्र कलासवर्ण ॥ गणितसारसंग्रह २-५४.
२ प्रतिषु ‘णसंबग्गादिसुत्त- ' इति पाठः ।
३ गतिनिवृत्ती सूत्रम् - निज-निजकालोदधृतयोगमननिवृत्याविशेषणज्जिाताम् । दिनशुद्धगतिं न्यस्य राशिकविधिमतः कुर्यात ॥ गणितसारसंग्रह ४-२३.
४ गणितसारसंग्रह ५, ७९-२०८. लीलावती २. ६५-७७ ५ त्रि. सा. १६.
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