Book Title: Shatkhandagama Pustak 09
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
.., १, ६६.] कदिअणियोगदारे खेत्ताणुगमो
(२८५ रासित्तादो । एइंदिय-कायजोगि-णqसयवेद-मदि-सुदअण्णाणि-असंजद-मिच्छाइट्ठि-असण्णीत कदि-णोकदि-अवत्तव्वसंचिदा केत्तिया ? अणता । कारणं सुगमं । बादरेइंदिय-सुहुमेइंदियतप्पज्जत्तापज्जत्त-सव्ववणप्फदि-णिगोदजीव-सुहुमणिगोद-ओरालियकायजोगि-ओरालियमिस्सकाय-जोगि-कम्मइयकायजोगि-चत्तारिकसाय-किण्ण-णील-काउलेस्सिय-आहारि-अणाहारीसु कदि. संचिदा केत्तिया ? अणंता, अंतरेण विणा गंगापवाहो व्व अणंतजीवप्पवेसादो । पुढविकाइयआउकाइय-तेउकाइय-वाउकाइया तेसिं बादरा तेसिं चेव अपज्जत्ता तेसिं सुहुमा पज्जत्ता अपज्जत्ता कदिसंचिदा केवडिया ? असंखेज्जा, असंखेज्जलोगरासित्तादो। एवं दव्वाणुगमो समत्तो।
खेत्ताणुगमेण गदियाणुवादेण पिरयगदीए मेरइएसु कदि-गोकदि-अवत्तव्वसंचिदा केवडिखेते ? लोगस्स असंखेज्जदिमागे । एवं सवणेरइय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-सव्वदेवमणुसअपज्जत्ता सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज्जत्त-बादरपुढविकाइय-आउकाइय-तेउकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्त-तसअपज्जत्त-पंचमणजोगि-पंचवचिोगि-वेउवियदुग-आहारदुग-इत्थि-पुरिसवेद-विभंगणाणि-आभिणियोहियणाणि-सुदणाणि-ओहिणाणि-मणपज्जवणाणि-सामाइयछेदोवट्ठा
एकेन्द्रिय, काययोगी, नपुंसकवेदी, मतिअज्ञानी, श्रुताशानी, असंयत, मिथ्याष्टि और असंशी जीवों में कृति, नोकृति व अवक्तव्य संचित कितने हैं ? अनन्त हैं। इसका कारण सुगम है। बादर एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, उनके पर्याप्त व अपर्याप्त, सब वनस्पति, निगोद जीव, सूक्ष्म निगोद जीव, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, चार कषाय, कृष्ण, नील व कापोत लेश्यावाले, आहारी तथा अनाहारी जीवों में कृतिसंचित जीव कितने हैं ? अनन्त हैं, क्योंकि, इनमें अन्तरके विना गंगाप्रबाहके समान अनन्त जीवोंका प्रवेश है । पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजकायिक, वायुकायिक, उनके बादर, उनके ही अपर्याप्त, उनके सूक्ष्म पर्याप्त व अपर्याप्त जीव कृतिसंचित कितने हैं ? असंख्यात हैं, क्योंकि, ये असंख्यात लोक प्रमाण राशियां हैं। इस प्रकार द्रव्यानुगम समाप्त हुआ।
क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा गतिमार्गणानुसार नरकगतिमें नारकियोंमें कृति, नोकृति व अवक्तव्य संचित जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? उक्त जीव लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं। इस प्रकार सब नारकी, सब पंचेन्द्रिय तिर्यच, सब देव, मनुष्य अपर्याप्त, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, बादर पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजकायिक व प्रत्येकशरीर पर्याप्त,प्रस अपर्याप्त, पांच मनोयोगी,पांच वचनयोगी, वैक्रियिकद्विक, आहारदिक, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, विभंगशानी, आभिनिबोधिकंज्ञानी, श्रुतक्षानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यय
...........................
१ प्रतिषु मादरेइंदिए ' इति पाठः । ..
२.प्रतिषु । -गृहम० ' इति पाठः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org