Book Title: Shatkhandagama Pustak 09
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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७, १,६६.
कदिअणियोगद्दारे भावाणुगमो
[ ३१५
असंखेज्जदिभागो । एगजीवं पडुच्च आभिणिबोहियभंगों । सासणसम्मादिट्ठीणं जाणाजीवं पडुच्च सम्मामिच्छत्तभंगो । एगजीवं पडुच्च जहणणेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, उक्कस्सेण अद्धप।ग्गलपरियहं देसूणं ।
सण्णि-असण्णीणमेइंदियभंगो । आहारएसु तिष्णिपदाणं जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण तिण्णिसमया । अणाहारएसु जहणणेण खुद्दाभवग्गहणं तिसमऊणं, उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाओ ओसप्पिणी - उस्सप्पिणीओ । एवमंतराणुगमो समत्तो ।
भावानुगमेण गदियाणुवादेण णिरयगदीए णेरइयाणं कदि - णोकदि अवत्तव्वसंचिदाणं को भावो ? ओदइओ भावा । अगेसु भावेसु संतेसु कधमोदइयत्तं चेव जुज्जदे ? ण, रइयभावप्पणादो; इदरेहि भावेहिंतो णेरइयभावाणुष्पत्ती दो । एवं सव्वगदीणं वत्तव्वं । इंदियमग्गणाए वि ओदइओ भावो, एग-बि-ति-चदु-पंचिंदियजादिकम्मेहिंतो तस्सुप्पत्ती दो । एवं कायमग्गणाए
पल्योपमके असंख्यातवें भाग होता है । एक जीवकी अपेक्षा उनकी प्ररूपणा आभिनिबोधिकज्ञानियोंके समान है । सासादनसम्यग्दृष्टियोंकी प्ररूपणा नाना जीवोंकी अपेक्षा सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंके समान है। एक जीवकी अपेक्षा वह जवन्यसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग और उत्कर्षसे कुछ कम अर्ध पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है ।
संक्षी और असंक्षी जीवोंकी प्ररूपणा एकेन्द्रिय जीवोंके समान है । आहारक जीवोंमें तीनों पदोंका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षले तीन समय तक होता है । अनाहारकोंमें वह अन्तर जघन्यसे तीन समय कम क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्ष से अंगुल असंख्यातवें भाग मात्र असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी प्रमाण है। इस प्रकार अन्तरानुगम समाप्त हुआ ।
भावानुगमकी अपेक्षा गतिमार्गणानुसार नरकगति में नारकी कृति, नोकृति और अवक्तव्य संचित जीवोंके कौनसा भाव होता है ? उक्त जीवोंके औदायिक भाव होता है । शंका- उनके अनेक भावोंके होते हुए केवल एक औदायिक भाव कहना कैसे उचित है ?
समाधान - नहीं, क्योंकि यहां नारक भाव ( पर्याय ) की विवक्षा है और यह मारक पर्याय अन्य भावोंसे उत्पन्न होती नहीं है ।
इसी प्रकार सब गतियोंके औदायिक भाव कहना चाहिये । इन्द्रियमार्गणा में भी औदयिक भाव है, क्योंकि, वह एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जाति नामकमके उदयसे होती है । इसी प्रकार कायमार्गणा में भी औदयिक भाव कहना
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