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४, १, ६६. ]
कदिअणियोगद्दारे अंतराणुगमो
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सागरोवमाउएसु सणक्कुमारदेवे सुप्पज्जिय पुणो मणुसगइमागंतूण समयाहियएक्कत्तीस सागरोमाउसु अणुद्दिसदेवसुप्पण्णे अंतरकालो चत्तारिसागरोवममेत्तो देसूणो लम्भदि । वेदगसम्मत्तकालो विछावसिागरोवममेत्तो संपुण्णो होदि । तदो एसो उक्कस्तरकालो घेत्तव्वो त्ति ? ण, एत्थ वेदगसम्मत्तेण एक्केण चैव होदव्वमिदि नियमाभावादो । नियमे वा सादिरेयबेसागरोवममेत्तो अणुत्तरदेवाणमंतरकालो विरुज्झदे वेदगसम्मत्तस्स सादिरेयछावट्टिसागरोवमकालप्पसंगादो' च । तदो तिण्णि वि सम्मत्ताणि एत्थ ण विरुज्यंति त्ति घेत्तव्वं । जदि एवं घेपदि तो समय हियएक्कत्तीस सागरोवमाणि आउवदेवं मणुस्सेसुष्पाइय पुणे एक्कत्तीस - सागरोवमाउएसु उवरिमगेवज्जदेवेसु उपपाइय मणुसगइमाणेण दंसणमोहणीयं खविय खइयसम्मत्तेण अणुद्दिसदेवेसु उप्पाइदे सादिरेय एक्कत्तीस सागरोवममेत्तंतर कालो लग्भदे ? ण, अणु१ द्दिसाणुत्तरदेवाणं तत्तो भविय पुणेो तत्थेव उप्पज्जमाणांणं सादिरेय बेसागरोवमे मोत्तूण अहियं
सनत्कुमार देवोंमें उत्पन्न होकर पुनः मनुष्यगतिको प्राप्त होकर एक समय अधिक इकतीस सागरोपम प्रमाण आयुवाले अनुदिश देवोंमें उत्पन्न होनेपर अन्तरकाल कुछ कम चार सागरोपम प्रमाण प्राप्त होता है । और इस प्रकार वेदकसम्यक्त्वका काल भी छ्यासठ सागरोपम मात्र सम्पूर्ण होता है । अत एव इस उत्कृष्ट अन्तरकालको ग्रहण करना चाहिये ?
समाधान - नहीं, क्योंकि, यहां एक वेदकसम्यक्त्व ही होना चाहिये, ऐसा नियम नहीं है | अथवा ऐसा नियम माननेपर अनुत्तरविमानवासी देवका कुछ अधिक दो सागरोपम मात्र अन्तरकाल विरोधको प्राप्त होगा, तथा वेदकसम्यक्त्वके कुछ अधिक छयासठ सागरोपम प्रमाण कालका प्रसंग भी आवेगा । इस कारण तीनों ही सम्यक्त्व यहां विरोधको प्राप्त नहीं होते, ऐसा ग्रहण करना चाहिये ।
शंका -- यदि इस प्रकार ग्रहण करते हैं तो एक समय अधिक इकतीस सागरोपम प्रमाण आयुवाले देवको मनुष्यों में उत्पन्न कराकर पुनः इकतीस सागरोपम आयुवाले उपरिम ग्रैवेयकविमानवासी देवों में उत्पन्न कराकर मनुष्यगतिमें लाकर दर्शनमोहनीयका क्षयकर क्षायिक सम्यक्त्वके साथ अनुदिशविमानवासी देवोंमें उत्पन्न करानेपर कुछ अधिक इकतीस सागरोपम मात्र अन्तरकाल पाया जाता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, अनुदिश व अनुत्तर विमानवासी देवोंके वहांसे व्युत होकर फिर से वहां पर ही उत्पन्न होनेपर कुछ अधिक दो सागरोपमोंको छोड़कर अधिक
१ - भाप्रमोः ' कालप्पसंगो च ' इति पाठः ।
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