Book Title: Shatkhandagama Pustak 09
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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कदिअणियोगद्दारे अंतराणुगमो
[ ३११
एइंदिय-वि-ति-चदु-पंचिंदिएसु' तिरिक्खभंग । बादरेइंदियाणं तेसिं चेव पज्जत्तापज्जत्ताणं कदिसंचिदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण असंखेज्जा लोगा । सुहुमाणं तेसिं चेव पज्जत्तापज्जत्ताणं कदिसंचिदाणं अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहणेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेजाओ ओसप्पिणी - उस्सप्पिणीओ ।
, १,६६. ]
चचारिकायाणं तेसिं चैव बादराणं तेसिमपज्जत्ताणं तेसिं सुहुमाणं तेर्सि चेव पज्जत्तापज्जत्ताणं कदिसंचिदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवगहणं, उक्कस्सेण अनंतकालम संखेज्जपोग्गलपरियट्टा । बादरपुढविकाइय- बादरआउकाइय- बादरते उकाइय- बादरवा उकाइय- बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्ताणं तसकाइयपज्जत्तापज्जत्ताणं पंचिंदियतिरिक्खभंगो। बादरवणफदिकाइयपत्तेयसरीराणं तेसिमपज्जत्ताणं च एगजीवं पडुच्च जद्दण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण अड्डाइज्जपोग्गलपरियट्टा । वणप्फदिकाइयणिगोदजीवाणं बादर-सुहुमाणं च तेर्सि चेव पज्जत्तापज्जत्ताणं च कदिसेचिदाणं अंतरं केवचिरं कालादो होदि ?
एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियोंमें कृतिसंचित जीवोंकी प्ररूपणा तिर्येचोंके समान है । बादर एकेन्द्रिय और उनके ही पर्याप्त व अपर्याप्त कृतिसंचितोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे असंख्यात लोक प्रमाण काल उक्त जीवोंका अन्तर होता है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय और उनके ही पर्याप्त व अपर्याप्त कृतिसंचितोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? उक्त जीवोका अन्तर जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल होता है ।
चार काय अर्थात् पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजकायिक व वायुकायिक और उनके ही बादर व उनके अपर्याप्त, उनके सूक्ष्म व उनके ही पर्याप्त अपर्याप्त कृतिसंचितोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे क्षुद्रभवप्रहण व उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण काल तक होता है । बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक, बादर तेजकायिक, वादर वायुकायिक व बाद वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त तथा त्रसकायिक पर्याप्त व अपर्याप्तोकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यचोंके समान है। बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर व उनके अपर्याप्तोका अन्तर एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे अढ़ाई पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है । वनस्पतिकायिक निगोद जीव उनके बादर व सूक्ष्म तथा उनके ही पर्याप्त व अपर्याप्त कृतिसंचितोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? उक्त जीवोंका
१ अ - आलो : ' एईदिए एइंदिएस', काप्रतौ ' एइंदिय एइंदिए ' इति पाठः ।
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