Book Title: Shatkhandagama Pustak 09
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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, १, ११.] कदिअणियोगद्दारे विउलमदिपरूवणा विसईकयउक्कस्सदव्वादो तप्पाओग्गहाणिमुवगयएगसमइयइंदियणिज्जरादव्वस्स विउलमदिविसयत्तेण अब्भुवगमादो । उक्कस्सदव्वजाणावणटुं तप्पाओग्गासंखेज्जाणं कप्पाणं समए सलागभूदे ठविय मणदव्ववग्गणाए अणंतिमभागं विरलिय अजहण्णुक्कस्समेगसमयपबद्धं विस्सासोवचयविरहिदमट्ठकम्मपडिबद्धं समखंडं करिय दिण्णे तत्थ एगखंडं बिदियवियप्पो होदि । सलागरासीदो एगरूवमवणेदव्यं । एवमणेण विहाणेण णेदव्वं जाव सलागरासी समत्तो त्ति । एत्थ अपच्छिमदव्ववियप्पमुक्कस्सविउलमदी जाणदि । जहण्णुक्कस्सदव्वाणं मज्झिमवियप्पे तव्वदिरित्तविउलमदी जाणदि ।
खेत्तेण जहणं जायणपुधत्तं । ण च उजुविज्लमदिउक्कस्स-जहण्णखेत्ताणं समाणत्तं, जोयणपुधत्तम्मि अणेयभेयदंसणादो । उक्कस्सेण माणुसुत्तरसेलस्स अभंतरदो, णो बहिद्धा । पणदालीसजोयणलक्खघणपदरं जाणदि त्ति उत्तं होदि। एगागाससेडीए चेव जाणदि त्ति
निर्जराके ऋजुमति द्वारा विषय किये गये उत्कृष्ट द्रव्यकी अपेक्षा उसके योग्य हानिको प्राप्त एक समय रूप इन्द्रियनिर्जराका द्रव्य विपुलमतिका विषय माना गया है ।
उत्कृष्ट द्रव्यके ज्ञापनार्थ उसके योग्य असंख्यात कल्पोंके समयोंको शलाका रूपसे स्थापित करके मनोगव्यवर्गणाके अनन्तवें भागका विरलन कर विनसोपचय रहित व आठ कौसे सम्बद्ध अजघन्यानुत्कृष्ट एक समयप्रबद्धको समखण्ड करके देनेपर उनमें एक खण्ड द्रव्यका द्वितीय किकल्प होता है । इस समय शलाका राशिमें से एक रूप कम करना चाहिये। इस प्रकार इस विधानसे शलाका राशि समाप्त होने तक ले जाना चाहिये। इनमें अन्तिम द्रव्यविकल्पको उत्कृष्ट विपुलमति जानता है। जघन्य और उत्कृष्ट द्रव्यके मध्यम विकल्पोंको तद्व्यतिरिक्त विपुलमति जानता है ।
क्षेत्रकी अपेक्षा विपुलमतिका जघन्यसे योजनपृथक्त्व विषय है। ऋजुमतिका उत्कृष्ट और विपुलमतिका जघन्य क्षेत्र यहां समान नहीं है, क्योंकि, योजनपृथक्त्वमें अनेक भेद देखे जाते है। उत्कर्षसे वह मानुषोत्तर पर्वतके भीतरकी बात जा वाहरकी नहीं । तात्पर्य यह कि पैंतालीस लाख योजन धनप्रतरको जानता है ।
एक आकाशश्रेणी में ही जानता है ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। किन्तु वह घटित
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१ अट्ठपहं कम्मणि समयपबद्ध विविस्ससोवच यं । धुवहारेणि गिवारं भजिदे बिदियं हवे दव्वं ॥ तविदिये कपाणमसंखेजाणं च समयसंखसमं । धुवहारेणवहारदे होदि हु उक्कसयं दबं ॥ गो. जी. ४५३-४५४.
२ क्षेत्रतो जघन्येन योजनपृथक्त्वम्, उत्कर्षेण मानुषोत्तरशैं लस्याम्यन्तरं न बहिः । स. सि. १,२ ति. रा. १, २३, १०. विउलमदिरस य अवरं तस्स पुधत्तं वरं खु परलोयं ॥ गो. जी. ४५५.
३ परलोए ति य वयणं विक्खंभणियामयं ण वस्स । जम्हा तग्घणपदरं मणपज्जवखेतमुहिढं ।। गो. नी. ४५६.
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