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छक्खंडागमे यणाखंड
१,१५.
पढमो अबंधयाणं बिदियो तेरासियाण बोद्धयो । पदमो
. तदियो य णियदिपक्खे हयदि चउत्थो ससमयम्मि ।। ७५ ॥ त्रयीगतमिथ्यात्वसंख्याप्रतिपादिकेयं गाथा
एक्केक्कं तिणि जणा दो दो यण इच्छदे तिवग्गम्मि ।
एक्को तिण्णि ण इच्छइ सत्त वि पावेंति मिच्छत्तं' ।। ७६ ॥ प्रथमानुयोगे पंचपदसहस्रे ५००० चतुर्विशतेस्तीर्थकराणां द्वादशचक्रवर्तिनां बलदेववासुदेव-तच्छत्रूणां चरितं निरूप्यते' । अत्रोपयोगी गाथा
इनमें प्रथम अधिकार अबन्धकोंका और द्वितीय त्रैराशिक अर्थात् आजीविकोंका जानना चाहिये । तृतीय अधिकार नियतिपक्षमें और चतुर्थ अधिकार स्वसमयमें है ॥७५॥ (विशेषके लिये देखिये पु. २ की प्रस्तावना पृ. ४६ आदि)।
त्रिवर्गगत मिथ्यात्वकी संख्याको बतलानेवाली यह गाथा है
तीन जन त्रिवर्ग अर्थात् धर्म, अर्थ और काममें एक एककी इच्छा करते हैं, अर्थात् कोई धर्मको, कोई अर्थको और कोई कामको ही स्वीकार करते हैं। दूसरे तीन जन उनमें दो-दोकी इच्छा करते हैं; अर्थात् कोई धर्म और अर्थको, कोई धर्म और कामको तथा कोई अर्थ और कामको ही स्वीकार करते हैं । कोई एक तीनोंकी इच्छा नहीं करता अर्थात् तीनमेंसे एकको भी नहीं चाहता है । इस प्रकार ये सातों जन मिथ्यात्वको प्राप्त होते हैं ॥ ७६ ॥
पांच हजार ५००० पद प्रमाण प्रथमानुयोगमें चौबीस तीर्थकर, बारह चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव और उनके शत्रु प्रतिवासुदेवोंके चरित्रका निरूपण किया जाता है । यहां उपयोगी गाथायें--
१ धर्म यशः शर्म च सेवमानाः केऽप्येकशी जन्म विदुः कृतार्थम् । अन्ये द्विशो विद्म वयं त्वमोधान्यहानि यान्ति त्रयसेवयैव ॥ सागारधर्मामृत १, १४.
२ अ-आप्रत्योः 'प्रथमानियोगे', 'काप्रतौ 'प्रथमनुयोगे' इति पाठः ।
३ प्रथमानुयोगमाख्यानं चरितं पुराणमपि पुण्यम् । बोधि-समाधिनिधानं बोधति बोधः समीचीनः ॥ एकपुरुषाश्रिता कथा चरितम् , त्रिषष्टिशलाकापुरुषाश्रिता कथा पुराणम् , तदुभयमपि प्रथमानुयोगशब्दाभिधेयम् । र. क. श्रा. २, २. जो पुण पढमाणिओओ सो चउवीसतित्थयर-बारहचक्कवट्टि-णवबल-णवणारायण-णवपडिसत्तूणं पुराणे जिणविज्जाहर-चक्कवहि-चारण-रायादीण वसे च वण्णेदि । जयध. १, पृ. १३८. अं. प. २, ३५-३७,
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