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४, १, ५१.] कदिअणियोगदारे ठषणकदिपरूषणा।
। २९७ पढममुद्दिट्ठा णामकदी तिस्से अत्थपरूवणे भण्णमाणे ताव विसयपरूवणा कीरदे- सा णामकदी अट्टविसया, एयाणेयजीवाजीवेसु सण्णिवादभंगाणं' असंखादो अहियाणमणुवलंभा । एदेसु अट्ठभंगेसु जस्स णामं कीरदि कदि त्ति सा कदिसण्णा अप्पाणम्हि वट्टमाणा आहारभेदेण अट्ठपयारा अवंतरभेदण बहुकोडिभेदमावण्णा सा सव्वा णामकदी णाम । एषा पिन क्षणिकैकान्तवादे घटते, तत्र संज्ञासंज्ञिसम्बन्धग्रहणानुपपत्तेः । न नित्यैकान्तवादिमते, तत्र अनाधेयातिशये प्रतिपाद्य-पतिपादकभेदाभावात् । नोभयपक्षोऽपि, विरोधादुभयदोषानुषंगात् । नानुभयपक्षोऽपि, निःस्वभावतापत्तेः। न शब्दार्थयोरैक्यपक्षोऽपि, कारण-करणदेशादिभेदाभावासंजनात् । ततस्त्रिकोटीपरिणामात्मकाशेषार्थवादिनां जैनवादिनामेवैतद् घटते, नान्येषाम् । न स्फोटोऽर्थप्रतिपादकः, तस्यानुपलंभतोऽसत्वात् । ततो बहिरंगवर्णजनितमन्तरंगवर्णात्मकं पदं
कृतियोंमें जो वह पहिले निर्दिष्ट की गई नामकृति है उसके अर्थकी प्ररूपणा करनेपर प्रथमतः विषयकी प्ररूपणा की जाती है। उस नामकृतिके विषय आठ हैं- क्योंकि, एक व अनेक जीव एवं अजीवमें संयोगसे होनेवाले भंगोंकी आठ ही संख्या है। इससे अधिक अधिक संख्या पायी नहीं जाती । इन आठ भंगोंमें जिसका 'कृति' ऐसा नाम किया जाता है वह अपने आपमें रहनेवाली कृति संज्ञा आधारके भेदसे आठ प्रकार और अवान्तर भेदसे अनेक करोड़ भेदोंको प्राप्त है, वह सब नामकृति कहलाती है ।
यह नामकृति भी क्षणिक एकान्तवादमें घटित नहीं होती, क्योंकि, उसमें संज्ञासंशी सम्बन्धका ग्रहण नहीं बनता। और न वह सर्वथा नित्यताको माननेवालोंके मतमें बनती है, क्योंकि, उनके यहां पदार्थके अनाधेयातिशय अर्थात् निरतिशय होनेसे यह प्रतिपाद्य है और यह प्रतिपादक है, ऐसा भेद सम्भव नहीं है । उभय पक्ष अर्थात् परस्पर निरपेक्ष नित्यानित्य पक्ष भी नहीं बनता, क्योंकि, वैसा मानने में विरोध है, तथा दोनों पक्षोंमें कहे हुए दोषोंका प्रसंग भी आता है। अनुभय पक्ष (न नित्य और न अनित्य ) भी घटित नहीं होता, क्योंकि, ऐसा माननेपर वस्तुके निःस्वभावताकी आपत्ति आती है। शब्द और अर्थका अभेद पक्ष भी नहीं बनता, क्योकि, ऐसा होनेपर कारण, करण और देश आदिके भेदके अभावका प्रसंग आता है। अत एव त्रिकोटिपरिणाम स्वरूप समस्त पदार्थोंको माननेवाले जैन वादियोंके यहां ही वह घटित होता है, दूसरोंके नहीं होता।
स्फोट भी अर्थका प्रतिपादक नहीं है, क्योंकि, अनुपलब्ध होनेसे उसका सत्व ही सम्भव नहीं है। इस कारण बहिरंग वाँसे उत्पन्न अन्तरंग वर्गों स्वरूप पद अथवा
१ अ-काप्रत्योः · संपादसण्णिवादभंगाणं', अप्रती · सपादसण्णिवादभंगाणं ' इति पाठः। २ प्रतिषु · भेदाभावासंजननात् ' इति पाठः ।
३ न च वर्ण-पद-वाक्यव्यतिरिक्तः नित्योऽक्रमः अमृतों निरवयवः सर्वगतः अर्थप्रतिपत्तिनिमित्तं स्फोट इति, अनुपलम्भात् । जयध. १, पृ. २६६.
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