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४, १, ५४.] कदिअणियोगद्दारे दव्वकदिपरूवणा
[२५१ आममो सिद्धंतो सुदणाणमिदि एयहो । अत्रोपयोगी श्लोकः--
पूर्वापरविरुद्धादेयंपेतो दोषसंहतेः ।।
द्योतकः सर्वभावानामाप्तव्याहृतिरागमः ॥ ९१ ।। एदम्हादो आगमादो जं तं दव्वं तमागमदव्वं, तस्स कदी आगमदव्वकदी णाम । आगमादण्णो णोआगमो । तदो जं दव्वं तण्णोआगमदव्वं, तस्स कदी णोआगम [ दव्वकदी णाम । एवं ] दव्वकदीए दुविहत्तं परूविय आगमवियप्पपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि
जा सा आगमदो दव्वकदी णाम तिस्से इमे अट्ठाहियारा भवंति-द्विदं जिदं परिजिदं वायणोपगदं सुत्तसमं अत्थसमं गंथसमं णामसमं घोससमं । एवं णव अहियारा आगमस्स होति ॥ ५४॥
तत्थ द्विदस्स आगमस्स सरूवपरूवणा कीरदे- अवधृतमात्रं स्थितम् , जो पुरिसो
___आगम, सिद्धान्त व श्रुतक्षान, इन शब्दोंका एक ही अर्थ है। यहां उपयोगी श्लोक
जो आप्तवचन पूर्वापरंविरुद्ध आदि दोषोंके समूहसे रहित और सब पदार्थोंका प्रकाशक है वह आगम कहलाता है ॥ ९१॥
इस आगमसे जो द्रव्य है वह आगमद्रव्य है, उसकी कृति आगमद्रव्यकृति कहलाती है। आगमसे भिन्न नोआगम कहा जाता है, उससे जो द्रव्य है वह नोआगमद्रव्य और उसकी कृति नोआगमद्रव्यकृति कहलाती है। इस तरह दो प्रकार कृतिकी प्ररूपणा करके आगमभेदोंके प्ररूपणार्थ उत्तरसूत्र कहते हैं
जो वह आगमसे द्रव्यकृति है उसके ये अधिकार हैं- स्थित, जित, परिजित, वाचनोपगत, सूत्रसम, अर्थसम, ग्रन्थसम, नामसम और घोषसम । इस प्रकार आगमके नौ अधिकार हैं ॥ ५४॥
उनमें स्थित आगमके स्वरूपकी प्ररूपणा करते हैं- अवधारण किये हुए मात्रका
१ से कि तं आंगमओं दव्यावस्त्यं ? जस्स णे आवस्सए ति पदं सिविखतं ठितं जितं मितं परिजित नामसमं घोससमं अहीणक्खरं अणच्चक्खरं अव्वाइद्धक्खरै अक्खलिअं अमिलिअं अवच्चामेलियं पडिपुण्णं पडिपुण्णधोर्स कंठोडविप्पमुक्कं गुरुवायणोवगयं xxx। अनु. टीका सू. १३.
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