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१६२ खंडागमे वैयणाखंड
[४, १, ५५. यारा परुविदा । एसो अत्यो पयदकदीए जोजेयव्यो । कधमणियोगस्सणियोगा ? ण, कदीए वि संतादिणाणाणियोगसंभवादो । संपधि एदेसु जो उवजोगो तस्स भेदपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तमागदं -
जा तत्थ वायणा वा पुच्छणा वा पडिच्छणा वा परियट्टणा वा वा अणुपेक्खणा वा थय-थुदि-धम्मकहा वा जे चामण्णे एवमादिया
एदस्सत्थो वुच्चदे-जा तत्थ गवसु आगमेसु वायणा अण्णेसिं भवियाणं जहासत्तीए गंथत्थपरूवणा उवजोगो णाम । तत्थ आगमे अमुणिदत्थपुच्छा वा उवजोगो । आइरियभडारएहि परूविज्जमाणत्थावहारणं पडिच्छणा णाम । सावि उवजोगो । एत्थ सव्वत्थ वासद्दो समुच्चयट्ठो घेत्तव्यो। अविस्सरणटं पुणो पुणो भावागमपरिमलणं परियट्टणा णाम ।
कहे नये हैं । यह अर्थ प्रकृत कृतिमें जोड़ना चाहिये ।
शंका-अनुयोगके अनुयोग कैसे सम्भव हैं ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, कृतिअनुयोगके भी सत् संख्या आदि नाना अनुयोग सम्भव हैं।
अब इन आगमोंमें जो उपयोग है उसके भेदोंकी प्ररूपणाके लिये उत्तर सूत्र प्राप्त होता है
उन नौ आगमोंमें जो वाचना, पृच्छना, प्रतीच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षणा, स्तव, स्तुति, धर्मकथा तथा और भी इनको आदि लेकर जो अन्य हैं वे उपयोग हैं ॥ ५५ ॥
इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- जो उनं नौ आगमोंमें वाचना अर्थात् अन्य भव्य जीवोंके लिये शक्त्यनुसार ग्रन्थके अर्थकी प्ररूपणा की जाती है वह उपयोग है। वहां आगममें नहीं जाने हुए अर्थके विषयमें पूछना भी उपयोग है। आचार्य भट्टारकों द्वारा कहे जानेवाले अर्थके निश्चय करनेका नाम प्रतीच्छना है। वह भी उपयोग है। यहां सब अगह वा-शब्दको समुच्चयार्थक ग्रहण करना चाहिये। ग्रहण किया हुआ अर्थ विस्मृत न हो जावे, एतदर्थ वार चार भावागमका परिशीलन करना परिवर्तना है। यह भी उपयोग
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१ परियणा य वायण पांडच्छणाणुपेहणा य धम्मकहा। थुदिमंगलसंयुक्तः [ संजुत्तो ] पंचविहो होह समाओं । मूला. ५-१९६. xxx से णं तत्थ वायणाए पुच्छणाए परिअणाए थम्मकहाए । नो अशुप्पेहाए। कम्दा ? अव ओगो दव्वमिति कट्टु ॥ अनु. सू. १३. २ अप्रतौ — सो' इति पाठः ।
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