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१, १, ५४. कंदिअणियोगद्दारे आगमस्स णव अस्थाहियारा (२६१ ओगस्स ? उवमेये उवमाणावयारादो । घोसेण दव्वाणिओगद्दारेण समं सह वदि उप्पज्जदि त्ति घोससमं णाम अणियोगसुदणाणं । विभक्त्यन्तभेदेन पढनं सूत्रसमम् , कारकभेदेनार्थसमम् , विभक्त्यन्ताभेदेन ग्रन्थसमम् ।
लिंगत्तिय वयणसमं अवणिदुवण्णिदमिस्सयं चेव ।
अझत्थं च बहित्थं पचक्खपरोक्ख सोलसिमे ॥ १२० ।) एदेहि सोलसवयणेहि पढणं णामसमं । उदात्त-अणुदात्त-सरिदसरभेएण पढणं घोससममिदि के वि आइरिया परूवेंति । तण्ण घडदे, अणवत्थापसंगादो । कुदो ? विहत्ति-लिंगकारय-काल-पच्चक्ख-परोक्खज्झत्थ-बहित्थभेदाभेदेहि सुदणाणस्स अणेयविहत्तप्पसंगादो । ण च लिंगादीहि सुदणाणभेदो होदि, तेहि विणा पढणाणुववत्तीदो। एदे आगमस्स णव अत्याहि
समाधान-उपमेयमें उपमानका उपचार करनेसे वह भी सम्भव ही है। अर्थात् अनुयोग उपमेय है और दृष्टान्त उपमान है। उनके इस सम्बन्धके कारण अनुयोगको भी दृष्टान्त संक्षा प्राप्त है।
घोष अर्थात् द्रव्यानुयोगद्वारके समं अर्थात् साथ रहता है अर्थात् उत्पन्न होता है, इस कारण अनुयोगश्रुतशान घोषसम कहलाता है।
___विभक्त्यन्तभेदसे पढ़ना सूत्रसम, कारकभेदसे अर्थसम और विभक्त्यन्तके अभेदसे पढ़ना ग्रन्थसम है।
[तीनों ] वचनोंके साथ तीन लिंग, अपनीत, उपनीत व मिश्र अर्थात् उदात्त, अनुदात्त व स्वरित (?), अभ्यन्तर, बाह्य, प्रत्यक्ष और परोक्ष, ये सोलह हैं ॥ १२० ॥
इन सोलह वचनोंसे पढ़ना नामसम है। उदात्त, अनुदात्त और स्वरित स्वरोंके भेदसे पढ़नेका नाम घोषसम है, ऐसा कितने ही आचार्य प्ररूपण करते हैं। किन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, ऐसा माननेपर अनवस्थाका प्रसंग आता है; कारण कि इस प्रकार विभक्ति, लिंग, कारक, काल, प्रत्यक्ष, परोक्ष, अभ्यन्तर और बाह्यके भेदाभेदोंसे श्रुतज्ञानके अनेक प्रकार होनेका प्रसंग आता है। और लिंगादिकोंसे श्रुतशानका भेद होता नहीं है, क्योंकि, उनके विना पढ़ना बन नहीं सकता। ये आगमके नौ अर्थाधिकार
१ घोषा- उदात्तदियः, तैवाचनाचार्याभिहितघोषैः समं घोषसमम् । यथा गुरुणा अभिहितास्तथा शिष्योऽपि यत्र शिक्षते तद घोषसममिति भावः । अनु. टीका स. १३.
२ आ-कामलोः 'विभक्त्यन्तभेदेन ' इति पाठः ।
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