Book Title: Shatkhandagama Pustak 09
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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५, १, ५४.] कदिअणियोगहारे आगमस्स णव अस्थाहियारा
[२५९ दव्यादिवदिक्कमणं करेदि सुत्तत्थसिक्खलोहेण । असमाहिमसज्झायं कलह वाहिं वियोगं च ॥ ११५॥ विणरण सुदमधीत किह वि पमादेण होइ विस्सरिदं । तमुवट्टादि परभवे केवलणाणं च आवहदि ॥ ११६ ॥ अल्पाक्षरमसंदिग्धं सारवद् गूढनिर्णयम् ।
निर्दोष हेतुमत्तथ्यं सूत्रमिच्युते बुधैः ।। ११७ ॥) इदि वयणादो तित्थयरवयणविणिग्गयषीजपदं सुत्तं । तेण सुत्तेण समं वदि उप्पज्जदि त्ति गणहरदेवम्मि ह्रिदसुदणाणं सुत्तसमं । अर्यते परिच्छिद्यते गम्यते इत्यर्थों द्वादशांगविषयः, तेण अत्थेण समं सह वट्टदि त्ति अत्थसमं । दव्वसुदाइरिए अणवेक्खिय संजमजणिदसुदणाणावरणक्खओवसमसमुप्पण्णबारहंगसुदं संयंबुद्धाधारमत्थसममिदि वुत्तं होदि । गणहर
सूत्र और अर्थकी शिक्षाके लोभसे किया गया द्रव्यादिकका अतिक्रमण असमाधि अर्थात् सम्यक्त्वादिकी विराधना, अस्वाध्याय अर्थात् शास्त्रादिकोंका अलाभ, कलह, व्याधि और वियोगको करता है ॥ ११५ ॥
विनयसे पढ़ा गया श्रुत यदि किसी प्रकार भी प्रमादसे विस्मृत हो जाता है तो परभवमे वह उपस्थित हो जाता है और केवलज्ञानको भी प्राप्त कराता है ॥ ११६॥
जो थोड़े अक्षरोसे संयुक्त हो, सन्देहसे रहित हो, परमार्थ सहित हो, गृढ़ पदार्थों का निर्णय करनेवाला हो, निर्दोष हो, युक्ति युक्त हो और यथार्थ हो उसे पण्डित जन सूत्र कहते हैं ॥ ११७ ॥
इस वचनके अनुसार तीर्थंकरके मुखसे निकला बीजपद सूत्र कहलाता है। उस सूत्रके साथ चूंकि रहता अर्थात् उत्पन्न होता है, अतः गणधर देवमें स्थित श्रुतज्ञान सूत्रसम कहा गया है।
जो' अर्यते ' अर्थात् जाना जाता है वह द्वादशांगका विषयभूत अर्थ है । उस अर्थके साथ रहनेके कारण अर्थसम कहलाता है। द्रव्यश्रुत आचार्योंकी अपेक्षा न करके संयमसे उत्पन्न हुए श्रुतज्ञानावरणके क्षयोपशमसे जन्य स्वयंबुद्धोंमें रहनेवाला द्वादशांगभुत अर्थसम है, यह अभिप्राय है । गणधर देवसे रचा गया द्रव्यश्रुत ग्रन्थ कहा
१ प्रतिषु । असमाहियसझायां ' इति पाठः । २ मूला. ४, १७१. ३ मूला. ५, ८९.
४ सुसं गणधरकथिदं तहेव पत्तेयबुद्धि कथिद च । सुदकेवलिणा कधिदं अभिण्णदसपुस्विकधिदं च ॥ मूली. ५, ८०. अप्पगंथमहत्थं बचीसादोसविरहियं जं च । लक्खणजुत्तं सुत्तं अहेहि च गुणेहि उववेयं ॥ आव. सू. ८८०. अप्पक्खरम संदिर सारवं विस्सओमुह । अत्थोभमणवज्जं च सुत्तं सव्वण्णुभासियं ॥ आव. सू. ८८६.
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