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कदिअणियोगहारे वायणासुद्धिपरूवणा युक्त्या समधीयानो वक्षणकक्षाद्यमस्पृशन् स्वाङ्गम् । यत्नेनाधीत्य पुनर्यथाश्रुतं वाचनां मुंचेत् ॥ १०४ ॥ तपसि द्वादशसंख्ये स्वाध्यायः श्रेष्ठ उच्यते सद्भिः। अस्वाध्यायदिनानि ज्ञेयानि ततोऽत्र विद्वद्भिः ॥ १०५॥ पर्वसु नन्दीश्वरवरमहिमादिवसेषु चोपरागेषु ।। सूर्याचन्द्रमसोरपि नाध्येयं जानता वतिना ॥ १०६ ॥ अष्टम्यामध्ययनं गुरु-शिष्यद्वयवियोगमावहति । कलहं तु पौर्णमास्यां करोति विप्नं चतुर्दश्याम् ॥ १० ॥ कृष्णचतुर्दश्यां यद्यधीयते साधवो ह्यमावस्याम् । विद्योपवासविधयो विनाशवृत्तिं प्रयान्त्यशेषं सर्वे ।। १०८ ॥ मध्याहे जिनरूपं नाशयति करोति संध्ययोाधिम् । तुष्यन्तोऽप्यप्रियतां मध्यमरात्रौ समुपयान्ति ॥ १०९ ॥
वाजू और कांख आदि अपने अंगका स्पर्श न करता हुआ उचित रीतिसे अध्ययन करे और यत्नपूर्वक अध्ययन करके पश्चात् शास्त्रविधिसे वाचनाको छोड़ दे ॥ १०४ ॥
साधु पुरुषोंने बारह प्रकारके तपमें स्वाध्यायको श्रेष्ठ कहा है। इसीलिये विद्वानोंको स्वाध्याय न करनेके दिनोंको जानना चाहिये ॥ १०५ ॥
पर्वदिनों (अष्टमी व चतुर्दशी आदि), नन्दीश्वरके श्रेष्ठ महिमदिवसों अर्थात् अष्टाह्निक दिनों में और सूर्य-चन्द्रका ग्रहण होनेपर विद्वान् व्रतीको अध्ययन नहीं करना चाहिये ॥१०॥
अष्टमीमें अध्ययन गुरु और शिष्य दोनोंके वियोगको करता है। पूर्णमासीके दिन किया गया अध्ययन कलह और चतुर्दशीके दिन किया गया अध्ययन विघ्नको करता है ॥ १०७॥
यदि साधु जन कृष्ण चतुर्दशी और अमावस्याके दिन अध्ययन करते हैं तो विद्या और उपवासविधि सब विनाशवृत्तिको प्राप्त होते हैं ॥ १०८ ॥
मध्याह्न कालमें किया गया अध्ययन जिनरूपको नष्ट करता है, दोनों संध्याकालों में किया गया अध्ययन व्याधिको करता है, तथा मध्यम रात्रिमें किये गये अध्ययनसे अनुरक्त जन भी द्वेषको प्राप्त होते हैं ॥ १०९ ॥
१ प्रतिषु — वंक्षण- ' इति पाठः । छ, क३३.
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