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४, १, ५८. ] कदिअणियोगहारे आगमव्वक्रदिपषणा [२१५
संगहणयस्स एयो वा अणेया वा अणुवजुत्तों आगमदो दन्वकदी ॥ ५७॥
एसो संगहिदत्थग्गाहि त्ति संगहणओ भण्णदि । तेणेत्थसंगहपरूवणाए होदव्वमिदि । अस्थि एत्थ संगहो, जादि-वत्तिएयत्तवाचियाणं दोण्णं पि आगमदो दव्वकदीणमेयत्तभुवगमादो । पुबिल्लणएहि एदासिं दोण्णं कदीणमेयत्तं किण्ण इच्छिदं ? जादि-वत्तिगयएगत्ताणमेगाणेयदव्वाहाराणं एगजोग-क्खेमविरहिदाणं एगत्तविरोहादो । एसो णओ पुण संगहणसहाओ जादिव्वत्तिट्टियसंखाणं एगत्तेण भेदाभावादो दोण्णमांगमदो दश्वकदीणं एयत्तमिच्छदे ।
उजुसुदस्स एओ अणुवजुत्तो आगमदो दव्वकदी ॥ ५८॥ अणेया इदि अवत्थु । कधमुज्जुसुदस्स पज्जवडियस्स दव्वसंभवो ? ण, असुद्धम्मि
संग्रहनयकी अपेक्षा एक अथवा अनेक अनुपयुक्त जीव आगमसे द्रव्यकृति हैं ॥५७॥
चूंकि यह संगृहीत अर्थों को ग्रहण करता है इसीलिये संग्रहनय कहा जाता है। इसी कारण यहां संग्रहकी प्ररूपणा होना चाहिये । यहां संग्रह है ही, क्योंकि, जाति और व्यक्तिकी एकताकी वाचक दोनों ही आगमसे द्रव्यकृतियोंको एक स्वीकार किया गया है।
शंका--पूर्वोक्त नयोंसे इन दोनों कृतियोंको एक क्यों नहीं स्वीकार किया ?
समाधान -एक व अनेक द्रव्योंके आश्रित रहनेवाली तथा एक योग-क्षेम (ईप्सित वस्तुका लाभ और उसका संरक्षण ) से रहित जाति व व्यक्तिगत एकताओंकी एकताका विरोध होनेसे उक्त नयोंसे उन दोनों कृतियोंको एक नहीं स्वीकार किया गया। परन्तु यह नय संग्रहण स्वभाव होता हुआ जाति व व्यक्तिगत संख्याओंके एकताकी अपेक्षा कोई भेद न होनेसे दोनों आगमद्रव्यकृतियोंकी एकताको स्वीकार करता है।
ऋजुसूत्रकी अपेक्षा एक अनुपयुक्त जीव आगमसे द्रव्यकृति है ॥ ५८ ॥ इस नयकी दृष्टिमें अनेक ' अवस्तु है।। शंका- पर्यायार्थिक ऋजुसूत्रके द्रव्यकी सम्भावना कैसे हो सकती है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, अशुद्ध ऋजुसूत्रनयमें द्रव्यकी सम्भावनाके प्रति कोई
१ प्रतिषु ' अणुवजुत्तो वा ' इति पाठः।
२ अप्रती जादिव्वद्विदिसंखाणं', आ-कापत्योः । जादिव्वट्टियसंखाणं ' इति पाठः । क.क. ३४.
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