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४, १, ५०. ]
कदिअणियोगद्दारे णयविभासणदा
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विसई कयवेंजणपज्जाए अपहाणी कयसेसपज्जाए पुव्वावर कोटीणमभावेण उप्पत्ति-विणासे मोत्तूण अवाणावलंभादो । तम्हा उजुसुदे ट्ठवणं मोत्तूण सव्वणिक्खेवा संभवंति त्ति वृत्तं । कथं ठवणणिक्खेवो णत्थि ? संकष्पवसेण अण्णस्स दव्वस्स अण्णसरूवेण परिणामाणुवलंभादो सरिसत्तणेण दव्वाणभेगत्ताणुवलंभादो । सारिच्छेण एगत्ताणन्भुवगमे कधं णाम- गणण-गंथकदीणं संभवो ? ण, तब्भाव-सारिच्छसामण्णेहि विणा वि वट्टमाणकालविसे सप्पणाए वितासि - मत्थितं पडि विरोधाभावादो । उजुसुदस्स ण गणणकदी तस्साणेयमवत्थु इदि वयणादोत्ति कुत्ते ण, पज्जवट्ठिय- इगमे अवलंबिज्जमाणे अणेयसंखाए वि वत्थुत्तुवलंभादो |
सद्दादओ णामकदिं भावकदिं च इच्छंति ॥ ५० ॥
होदु भावकदी सणयाणं विसओ, तेसिं विसए दव्वादीणमभावादो । किंतु ण तेसिं
विषय की जाती हैं और शेष पर्यायें अप्रधान हैं; [ किन्तु प्रस्तुत सन्मतिसूत्रसे शुद्ध ऋजुसूत्र नयकी अपेक्षा होने से ] पूर्वापर कोटियोंका अभाव होने के कारण उत्पत्ति व विनाशको छोड़कर अवस्थान पाया ही नहीं जाता ।
इस कारण ऋजुसूत्र में स्थापनाको छोड़कर सब निक्षेप संभव हैं, ऐसा कहा गया है। शंका - स्थापनानिक्षेप ऋजुसूत्रनयका विषय कैसे नहीं है ?
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समाधान – क्योंकि, इस नयकी अपेक्षा संकल्पके वशसे एक द्रव्यका अन्य स्वरूपसे परिणमन नहीं पाया जाता, कारण कि सादृश्य रूपसे द्रव्योंके एकता नहीं पायी जाती । अतः स्थापनानिक्षेप यहां सम्भव नहीं है ।
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शंका- - सादृश्य सामान्यसे एकताके स्वीकार न करनेपर नामकृति, गणनकृति और ग्रन्थकृतिकी सम्भावना कैसे हो सकती है ?
समाधान – नहीं, क्योंकि, तद्भावसामान्य और सादृश्य सामान्यके विना भी वर्तमान काल विशेषकी विवक्षासे भी उनके अस्तित्वके प्रति कोई विरोध नहीं है ।
शंका - ऋजुसूत्र नयके गणनकृति सम्भव नहीं है, क्योंकि, इस नयकी दृष्टिमें ' अनेक संख्या अवस्तु है ' ऐसा वचन है ?
समाधान - नहीं, क्योंकि, पर्यायार्थिक नैगमनयका अवलम्बन करनेपर अनेक संख्याके भी वस्तुपना पाया जाता है।
शब्दादिक नय नामकृति और भावकृतिको स्वीकार करते हैं ॥ ५० ॥
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शंका - भावकृति शब्दनयोंकी विषय भले ही हो, क्योंकि, उनके विषय में द्रव्यादिक कृतियोंका अभाव है । परन्तु नामकृति उनकी विषय नहीं हो सकती, क्योंकि,
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