Book Title: Shatkhandagama Pustak 09
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, १, ४९.] कदिअंणियोगदारे णयविभासणदा
[२४३ जो सो वंजणपज्जाओ [सो] जहण्णुक्कस्सेहि अंतोमुहुत्तासखेज्जलोगमेत्तकालावट्ठाणो अणाइ-अणतो वा । तत्थ वंजणपज्जाएण पडिगहियं दव्वं भावो होदि । एदस्स वट्टमाणकालो जहण्णुक्कस्सेहि अंतोमुहुत्तो संखेज्जालोगमेत्तो अणाइणिहणो वा, अप्पिदपज्जायपढमसमयप्पहुडि आचरिमसमयादो एसो वट्टमाणकालो त्ति णायादो । तेण भावकदीए दवट्ठियणयविसयत्तं ण विरुज्झदे । ण च सम्मइसुत्तेण सह विरोहो, सुद्धज्जुसुत्र्तणयविसयीकयपज्जाएणुव. लक्खियदव्वस्स सुत्ते भावत्तब्भुवगमादो (एवं वुत्तासेसत्थं मणम्मि काऊण णेगम-ववहारसंगहाँ सव्वाओ कदीओ इच्छंति त्ति भूदबलिभडारएण उत्तं ।)
उजुसुदो ट्ठवणकदिं णेच्छदि ॥ ४९॥ __ अवसेसाओ कदीओ इच्छदि । कधमेदं सुत्तम्मि अवुत्तं णव्वदे ? अत्थावत्तीदो । उजुसुदणओ णाम पज्जवडियो, कधं तस्स णाम-दव्व-गणण-गंथकदी होति त्ति, विरोहादो ।
व्यजनपर्याय है वह जघन्य और उत्कर्षसे क्रमशः अन्तर्मुहूर्त और असंख्यात लोक मात्र काल तक रहनेवाली अथवा अनादि अनन्त है। उनमें व्यञ्जनपर्यायसे स्वीकृत द्रव्य भाव होता है । इसका वर्तमान काल जघन्य और उत्कर्षसे क्रमशः अतमुहूर्त और संख्यात लोक मात्र अथवा अनादिनिधन है, क्योंकि, विवक्षित पर्यायके प्रथम समयसे लेकर अन्तिम समय तक यह वर्तमान काल है, ऐसा न्याय है। इस कारण भावकृतिकी द्रव्यार्थिक नयविषयता विरुद्ध नहीं है । यदि कहा जाय कि ऐसा माननेपर सन्मतिसूत्रके साथ विरोध होगा सो भी नहीं है, क्योंकि, शुद्ध ऋजुसूत्र नयसे विषय की गई पर्यायसे उपलक्षित द्रव्यको सूत्रमें भाव स्वीकार किया गया है। इस प्रकार कहे हुए सब अर्थको मनमें करके 'नैगम, व्यवहार और संग्रह नय सर कृतियों को स्वीकार करते हैं ' ऐसा भूतबलि भट्टारकने कहा है।
ऋजुसूत्र नय स्थापनाकृतिको स्वीकार नहीं करता है ॥ ४९ ॥ ऋजुसूत्र स्थापनाकृतिको छोड़ शेष कृतियों को स्वीकार करता है । शंका-यह सूत्रमें न कहा हुआ अर्थ कैसे जाना जाता है ? समाधान- यह अर्थापत्तिसे जाना जाता है ।
शंका-ऋजुसूत्र नय पयार्यार्थिक है, अतः वह नामकृति, द्रव्यकृति, गणनकृति और ग्रन्थकृतिको कैसे विषय कर सकता है, क्योंकि, इसमें विरोध है । अथवा इसमें यदि कोई
५ व्य-जनपर्यायाः पुनः स्थूलाश्चिरकालस्थायिनो वाग्गोचराश्छमस्थदृष्टिविषयाश्च भवन्ति । पंचा. ता. टीका. १६.
२ प्रतिषु · सुद्ध ' इति पाठः। ३ जयंध. १, पृ. २६१. ४ प्रतिषु — संगह ' इति पाठः ।
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