Book Title: Shatkhandagama Pustak 09
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
४, १, ४८. ]
कदिअणियोगद्दारे णयविभासणदा
[ २४१
एत्थ इच्छंति त्ति पुव्वसुत्तादो अणुवट्टदे । ण तमेगवयणं, अत्थवसादो विहत्ति' - परिणामो होदि ति बहुवयणं संपज्जदे । णामकदी एदेसिं तिण्णं णयाणं विसया होदु णाम, आजम्मा आमरणादो अवदित्थे सव्वकालमवट्ठिदत्तणेण अज्झवसिदसद्दत्थेसु सण्णासणिसंबंधुवलंभादो । ठवणकदी वि दव्वट्ठियणयविसया चेव होदि, पुधभूददव्वाणमेगत्तज्झवसाएण विणा वणाणुववत्तदा । दव्वकदी विदव्वट्ठियणयविसया, आगम- गोआगमदव्वेसु पच्चहिण्णापच्चयगेज्झत्तणेण अवगयावट्ठाणेसु दव्वकइत्तदंसणादो । कथं गणणकई दव्वणियविसया ? ण, गणत-गणिज्जमाणाणं धुवावड्डाणेण विणा गणणकदीए असंभवादो । ण च एक्कमिदि गणिय तत्थेव विणट्ठो दुवादिगणणकारओ होदि, असंतस्स कत्तारत्तविरोहादो | ण च बिदियक्खणसमुप्पण्णो दुसंखमवहारयदि, अगहिदेक्कसंखस्स दुसंखावहारणाणुववत्तदो । ण च गणिज्जमाणे अणिच्चे संते गणणकदी जुज्जदे, एक्कमिदि गणिददव्वे विणट्ठे दुवादि
यहां ' इच्छन्ति ' अर्थात् स्वीकार करते हैं इस पदकी पूर्व सूत्रसे अनुवृत्ति आ है । यह एकवचन नहीं है, किन्तु 'अर्थके वशसे विभक्तिका परिवर्तन होता है ' इस न्याय से बहुवचन सिद्ध होता है । अर्थात् यद्यपि पूर्व सूत्र में 'इच्छति ' ऐसा एकवचन है, परन्तु, उक्त न्याय से अर्थके वश यहां 'इच्छंति ' ऐसे बहुवचन पदकी अनुवृत्ति है ।
शंका- नामकृति इन तीन नयोंकी विषय भले ही हो, क्योंकि, जन्मसे लेकर मरण पर्यन्त स्थिर अर्थ में सर्व काल अवस्थित स्वरूपसे निश्चित शब्द और अर्थमे संज्ञा-संज्ञी रूप सम्बन्ध पाया जाता है । स्थापनाकृति भी द्रव्यार्थिक नयकी विषय ही है, क्योंकि, पृथग्भूत द्रव्योंके एकत्वके निश्चय विना स्थापना बन नहीं सकती । द्रव्यकृति भी द्रव्यार्थिक नयकी विषय है, क्योंकि, प्रत्यभिज्ञान प्रत्ययके विषय रूपसे जिनका अवस्थान अर्थात् स्थिरता अवगत है ऐसे आगम व नोआगम रूप द्रव्योंमें द्रव्यकृतिपना देखा जाता है । किन्तु गणनकृति द्रव्यार्थिक नयकी विषय कैसे हो सकती है ?
समाधान - ऐसा नहीं है, क्योंकि, गिननेवाले व्यक्ति और गिनी जानेवाली वस्तुओं की स्थिरता के विना गणनकृति सम्भव ही नहीं है। कारण कि ' एक ' इस प्रकार गिनकर यदि गणना करनेवाला वहां ही नष्ट हो जावे तो फिर वह 'दो' आदि गिनतीका करनेवाला नहीं हो सकता, क्योंकि, असत्के कर्ता होने का विरोध है । और द्वितीय क्षणमें उत्पन्न व्यक्ति ' दो' संख्याका निश्चय नहीं कर सकता, क्योंकि, ' एक ' संख्याको जिसने नहीं जाना है उसके ' दो' संख्याका निश्चय बन नहीं सकता । इसी प्रकार गिनी जानेवाली वस्तुके भी अनित्य होनेपर गणनकृति उचित नहीं है, क्योंकि, ' एक ' इस प्रकार
१ प्रतिषु ' विहित्थि ' इति पाठः । ३ प्रतिषु ' विसए ' इति पाठः ।
छ, क३१.
Jain Education International
२ अर्थवशाद विभक्तिपरिणामः । स. सि. २-२. ४ प्रतिषु ' धुवट्ठाणेण ' इति पाठः ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org