Book Title: Shatkhandagama Pustak 09
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२४.1 छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, १, ४८. कयट्ठा च सयलसंववहारकारणं ? किंतु सव्वो संववहारो पमाणणिबंधणो णयसरूवो त्ति परूवेमो, सव्वसंववहारेसु गुण-पहाणभावोवलंभादो । अधवा पमाणादो णयाणमुप्पत्ती, अणवगहे' गुण-प्पहाणभावाहिप्पायाणुप्पत्तीदो। णएहिंतो संववहारुप्पत्ती, अप्पणो अहिप्पायवसेण एगाणेगववहारुवलंभादो। तदो णओ वि संववहारकारणमिदि वुत्ते ण कोच्छि दोसो। किमर्थ संव्यवहारो नयात्मक एव ? न, स्वाभाव्यात् , अन्यथा व्यवहर्तुमुपायाभावात् । णिक्खेवट्ठपरूवणाए कदाए पच्छा णयविभासणा किण्ण कीरदे ? ण, णयपरूवणाए विणा दुविहणयट्ठियजीवाणं परूविज्जमाणणिक्खवपरूवणाए संकर-वदिकरभावेण अत्थसमप्पण कुणंतीए वइफल्लप्पसंगादो। णेदं पुच्छासुत्तं, किंतु आइरियासंकासुत्तं; पुव्विल्लसुत्तचालणवसेण एदस्स सुत्तस्स अवयारादो।
णइगम-ववहार-संगहा सव्वाओ ॥ ४८ ॥
कारण है, प्रमाण और प्रमाणसे विषय किये गये पदार्थ भी समस्त संव्यवहारोंके कारण हैं। किन्तु प्रमाणनिमित्तक सब संव्यवहार नय स्वरूप हैं,ऐसा हम कहते हैं क्योंकि, सब संव्यव. हारोंमें गौणता और प्रधानता पायी जाती है । अथवा, प्रमाणसे नयोंकी उत्पत्ति होती है, क्योंकि, वस्तुके अज्ञात होनेपर उसमें गौणता और प्रधानताका अभिप्राय बनता नहीं है। और नयोंसे संव्यवहारकी उत्पत्ति होती है, क्योंकि, अपने अभिप्रायके वशसे एक व अनेक रूप व्यवहार पाया जाता है। इस कारण नय भी संव्यवहारका कारण है, ऐसा कहनेमें कोई दोष नहीं है।
शंका-संव्यवहार नय स्वरूप ही है, ऐसा क्यों है ?
समाधान -नहीं, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है, तथा अन्य प्रकारसे व्यवहार करनेके लिये और कोई उपाय भी नहीं है । . शंका-निक्षेपोंके अर्थकी प्ररूपणा कर चुकनेपर पीछे नयोंका व्याख्यान क्यों नहीं किया जाता?
समाधान-नहीं, क्योंकि, नवप्ररूपणाके विना दो प्रकारके नयोंके आश्रित जीवोंके लिये कही जानेवाली निक्षेपप्ररूपणा संकर व व्यतिकर रूपसे अर्थका समर्पण करनेवाली होगी, अतः उसके निष्फल होनेका प्रसंग आता है।
यह पृच्छासूत्र नहीं है, किन्तु आचार्यका आशंकासूत्र है, क्योंकि, पूर्वोक्त सूत्रकी चालनाके वशसे इस सूत्रका अवतार हुआ है।
नैगम, व्यवहार और संग्रह नय सब कृतियोंको स्वीकार करते हैं ॥४८॥
१ प्रतिषु · अगवगए ‘इति पाठः।
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