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२५८) छवंडागमै वैयणाखंड
[४, १७. अस्येसु वट्टदे १ ण, अणेयसहकारिकारणसण्णिहाणवसेण एयादो वि पहूण कज्जाणमुप्पत्तिदसणादो । दृश्यन्ते च क्रमाक्रमाभ्यामनेकधमैः परिणमन्तोऽर्थाः । न च दृष्टस्यापलापः शक्यते कर्तुमतिप्रसंगात् । एष कृतिशब्दः कर्तृवर्जितेषु त्रिकालगोचराशेषकारकेषु वर्तत इति सप्तस्वपि कृतिषु यथासम्भवकारकयोजना विधेया। सत्तण्णं कदीणमंते हिदइदिसदो आदीए आयत्वे वदि त्ति घेत्तव्यो, सत्त चेव कदीए णिक्खेवा होति त्ति णियमाभावादो।
(कदिणयविभासणदाए को णओ काओ कदीओ इच्छदि ? ॥ ४७ ॥
सत्तण णिक्खेवाणं णामणिद्देस काऊण तेसिमट्ठपरूवणमकाऊण किम णयविभासणदा कीरदे ? जहा सव्वे लोगववहारा दव्व-पज्जवट्ठियणयं अस्सिदूण ट्ठिदा तहा एसो वि णामादिववहारो दव्व-पज्जवट्ठियणयं अस्सिदूण द्विदो त्ति जाणावणहूँ कीरदे । एदेर्सि
समाधान-नहीं, क्योंकि, अनेक सहकारी कारणोंकी समीपता होनेसे एकसे भी बहुत कार्योंकी उत्पत्ति देखी जाती है। तथा क्रम और अक्रमसे अनेक धर्म रूपसे परिणमन करनेवाले पदार्थ देखे भी जाते हैं। और देखे गये पदार्थका अपह्नव नहीं किया जा सकता, क्योंकि, ऐसा होनेपर अतिप्रसंग दोष आता है।
__ यह कृति शब्द कर्ता कारकको छोड़कर तीनों काल विषयक समस्त कारकों में है, अतएव सातों कृतियों में यथासम्भव कारकोंकी योजना करना चाहिये। सात कृतियोंके भन्तमें स्थित इति शब्द आदि अर्थात् आद्यत्व अर्थमें है ऐसा ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, सात ही कृतियोंके निक्षेप है, ऐसा नियम नहीं है ।
कृतियोंके नयोंके व्याख्यानमें कौन नय किन कृतियोंकी इच्छा करता है ? ॥४७॥
शंका-सात निक्षेपोंका नामनिर्देश करके उनके अर्थकी प्ररूपणा न कर नयोंका व्याख्यान किस लिये किया जाता है ?
समाधान-जिस प्रकार सब लोकव्यवहार द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयका भाधय करके स्थित हैं उसी प्रकार यह नामादिक व्यवहार भी द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नयका आश्रय करके स्थित है, यह जतलाने के लिये नोंका व्याख्यान किया जाता है।
१ प्रतिषु धर्मः परिममन्तोः ' इति पाठ
२ प्रतिषु ' सत्स्वपि ' इति पाठः ।
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