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२३६] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, १, ४५. णिकाचणाणिकाचणं परूवेदि । णिकाचणमिदि किं ? जं पदेसग्गं ण सक्कमौकट्टिदुमुक्कट्टिदुमण्णपयडिसंकामेदुमुदए दादु वा तण्णिकाचिदं णाम । तविवरीदमणिकाचिदं । एत्थुवउज्जंती गाहा
उदए संकम-उदए चदुसु वि दादु कमेण णो सक्कं ।
उवसंतं च णिधत्तं णिकाचिदं चावि जं कम्म' ॥ ८७ ॥ कम्मद्विदि त्ति अणियोगदारं सव्वकम्माणं सत्तिकम्मट्ठिदिमुक्कड्डणोकड्डणमणिदहिदि च परुवेदि । पच्छिमक्खंधे त्ति अणिओगद्दारं दंड-कपाट-पदर-लोगपूरणाणि तत्थ हिदि-अणुभागखंडयघादणविहाणं जोगकिट्टीओ काऊण जोगणिरोहसरूवं कम्मक्खवणविहाणं च परूवेदि । अप्पाबहुगाणिओगद्दारं अदीदसव्वाणियोगद्दारेसु अप्पाबहुगं परूवेदि ।
जहा उद्देसो तहा णिदेसो त्ति कटु कदिअणिओगद्दारपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि----
भनिकाचनकी प्ररूपणा करता है।
शंका-निकाचन किसे कहते हैं ?
समाधान-जो प्रदेशाग्र अपकर्षणके लिये, उत्कर्षणके लिये, अन्य प्रकृति रूप परिणमानके लिये और उदयमें देनेके लिये शक्य नहीं है वह निकाचित कहलाता है । इससे विपरीत अनिकाचित है । यहां उपयुक्त गाथा
जो कर्म उदयमें नहीं दिया जा सके वह उपशान्त कहलाता है। जो कर्म संक्रमण थ उदयमें नहीं दिया जा सके उसे निधत्त कहते हैं। जो कर्म उदय, संक्रमण, उत्कर्षण घ अपकर्षण, इन चारोंमें ही नहीं दिया जा सकता है वह निकाचित कहा जाता है ॥८७॥
कस्थिति अनुयोगद्वार सब कर्मोंकी शक्ति रूप कर्मस्थिति और उत्कर्षण-अपकर्षणसे उत्पन्न स्थितिकी भी प्ररूपणा करता है। पश्चिमस्कन्ध अनुयोगद्वार दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्घातोंकी, उनमें स्थितिकाण्डक व अनुभागकाण्डकोंके घातने के विधानकी, योगकृष्टियोंको करके होनेवाले योगनिरोधके स्वरूपकी, तथा कर्मों के क्षय करनेकी विधिकी प्ररूपणा करता है। अल्प-बहुत्व अनुयोगद्वार पिछले सब अनुयोगद्वारों में अल्प-बहुत्वकी प्ररूपणा करता है।
'जैसा उद्देश होता है वैसा ही निर्देश होता है ऐसा समझ कर कृति अनुयोगद्वारकी प्ररूपणाके लिये उत्तर सूत्र कहते हैं
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१ गो. क. ४४०.
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