Book Title: Shatkhandagama Pustak 09
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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छक्खंडागमे वेयणाखंड
२४८ ]
वाक्यं वा अर्थप्रतिपादकमिति निश्चेतव्यम् ।
(जा साठवणकदी णाम सा कटुकम्मेसु वा चित्तकम्मेसु वा पोत्तकम्मेसु वा लेप्यकम्मेसु वा लेण्णकम्मेसु वा सेलकम्मेसु वा गिहकम्मेसु वा भित्तिकम्मेसु वा दंतकम्मेसु वा भेंडकम्मेसु वा अक्खो वा वराडओ वा जे चामण्णे एवमादिया ठवणाए ठविज्जंति कदि त्ति सा सव्वा ठेवणकदी णाम' ॥ ५२ ॥
[ ४, १, ५२.
एतस्स सुत्तस्स अत्थो वुच्चदे - जा साठवणकदी णामे त्ति वयणेण इमा परूवणा वणकदिविसया त्ति जाणावण पुव्वुद्दिट्ठट्ठवणकदी पुणे वि उद्दिट्ठा | जहा उद्देसो तहा णिसो त्तिणायादो वणकदिपरूवणा चेव णामकदिपरूवणाणंतरं होदि ति णव्वदे । तदो द वत्तव्यमिदि चे होदि एसो णाओ पुव्वाणुपुव्विविवक्खाए, ण सेसदोसु परूवणासुः
वाक्य अर्थ प्रतिपादक है, ऐसा निश्चय करना चाहिये ।
जो वह स्थापनाकृति है वह काष्ठकर्मों में, अथवा चित्रकममें, अथवा पोत कर्मे में, अथवा लेप्यकर्मोंमें, अथवा लयनकर्मों में, अथवा शैलकर्मोंमें, अथवा गृहकर्मोंमें, अथवा भित्तिक में, अथवा दन्तकर्मों में, अथवा भेंडकर्मों में, अथवा अक्ष या वराटक; तथा इनको आदि लेकर अन्य भी जो ' कृति ' इस प्रकार स्थापना में स्थापित किये जाते हैं वह सब स्थापनाकृति कही जाती है ॥ ५३ ॥
इस सूत्र का अर्थ कहते हैं- 'जो वह स्थापनाकृति है ' इस वचनसे यह प्ररूपणा स्थापनाकृतिविषयक है, इसके जतलाने के लिये पूर्वमें निर्दिष्ट की गई स्थापनाकृतिका फिरसे भी निर्देश किया गया है ।
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शंका -' जैसा उद्देश होता है वैसा ही निर्देश होता है' इस न्यायसे नामकृतिकी प्ररूपणाके पश्चात् स्थापनाकृतिकी ही प्ररूपणा है, यह स्वयं जाना जाता है। इस कारण उक्त वाक्यांश नहीं कहना चाहिये ?
समाधान - यह न्याय पूर्वानुपूर्वीकी विवक्षामें भले ही लागू हो, किन्तु शेष दो
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१ ष. स्वं. पु. ३, पृ. ११. से किं तं ठवणावस्सयं ? जण्णं कटुकम्मे वा पोत्थकम्मे वा चित्तकम्मे वा लेप्पकम्मे वा गंधिमे वा वेढिमे वा पूरिमे वा संघारमे वा अक्खे वा वराडए वा एगो वा अणेगो वा सम्भावठवणा वा असम्भावठवणा वा आवस्सए ति ठवणा ठविज्जह से तं ठवणावस्सयं । अनु. सू. १०.
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