Book Title: Shatkhandagama Pustak 09
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२१०] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, १, १५. योजनसहस्रादिगतिहेतवो विद्या-मंत्र-तंत्रविशेषा निरूप्यन्ते । मायागतायां द्विकोटि-नवशतसहस्रकान्नवतिसहस्रद्विशतपदायां २०९८९२०० मायाकरणहेतुविद्या-मंत्र-तंत्र-तपांसि निरूप्यन्ते । रूपगतायां द्विकोटिनवशतसहस्रकान्नवतिसहस्रद्विशतपदायां २०९८९२०० चेतनाचेतनद्रव्याणां रूपपरावर्तनहेतुविद्या-मंत्र-तंत्र-तपांसि नरेन्द्रवाद-चित्र-चित्राभासादयश्च निरूप्यन्ते । आकाश'गतायां द्विकोटिनवशतसहस्रैकान्नवतिसहस्रद्विशतपदायां २०९८९२०० आकाशगमनहेतुभूतविद्या-मंत्र-तंत्र-तपोविशेषा निरूप्यन्ते । अत्र पूर्वकृताधिकारे प्रयोजनम् , स्वान्तर्भूतमहाकर्मप्रकृतिप्राभृतत्वात् ।
पुव्वगयस्स अवयारो वुच्चदे- णाम-दुवणा-दव्व-भावभेएण चउब्धिहं पुव्वगयं । आदिल्ला तिण्णि वि णिक्खेवा दव्वट्ठियणयप्पहवा, भावणिक्खवो पज्जवट्ठियणयप्पहवो । णिक्खेवट्ठो वुच्चदे । तं जहा- णामपुव्वगयं पुव्वगयसद्दो बज्झत्थणिरवेक्खो अप्पाणम्हि
कारणभूत विद्या, मंत्र व तंत्र विशेषोंका निरूपण किया जाता है। दो करोड़ नौ लाख नवासी हजार दो सौ पदोंसे संयुक्त मायागता चूलिकामें माया करनेकी हेतुभूत विद्या, मंत्र, तंत्र एवं तपका निरूपण किया जाता है। दो करोड़ नौ लाख नवासी हजार दो सौ पदोंसे संयुक्त रूपगता चूलिकामें चेतन और अचेतन द्रव्योंके रूप बदलनेकी कारणभूत विद्या, मंत्र, तंत्र एवं तपका तथा नरेन्द्रवाद, चित्र और चित्राभासादिका निरूपण किया जाता है। दो करोड़ नौ लाख नवासी हजार दो सौ पदोंसे संयुक्त आकाशगता चूलिकामें आकाशगमनकी कारणभूत विद्या, मंत्र, तंत्र व तपविशेषका निरूपण किया जाता है । यहां पूर्वकृत अधिकारसे प्रयोजन है, क्योंकि, वह महाकर्मप्रकृतिप्राभृतको अपने अन्तर्गत करता है।
पूर्वगतका अवतार कहते हैं- नाम, स्थापना, द्रव्य और भावके भेदसे पूर्वगत चार प्रकार है । आदिके तीन निक्षेप द्रव्यार्थिक नयके निमित्तसे होनेवाले हैं, किन्तु भावनिक्षेप पर्यायार्थिक नयके निमित्तसे होनेवाला है। निक्षेपका अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है- बाह्य अर्थसे निरपेक्ष अपने आपमें प्रवर्तमान पूर्वगत शब्द नामपूर्वगत है।
१ष. खं. पु. १, पृ. ११३. थलगया कुलसेल-मेरु-महीहर-गिरि-वसुंधरादिसु चटुलगमणकारणमंततंत-तवच्छरणाणं वण्णणं कुणइ । जयध. १, पृ. १३९.
२ष. ख. पु. १, पृ. ११३. मायागया पुण माहिंदजालं वण्णेदि । जयध. १, पृ. १३९.
३ ष. खं. पु. १, पृ. ११३. रूवगया हरि-करि-तुरय-रुरु-णर-तरु-हरिण-वसह-सस-पसयादिसरूवण परावत्तणविहाणं णरिंदवायं च वण्णेदि । जयध. १, पृ. १३९.
४ ष. खं. पु. १, पृ. ११३. जा आयासगया सा आयासगमणकारणमंत-तंत-तवच्छरणाणि वण्णेदि। जयध. १, पृ. १३९.
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