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इक्खागमे वैयणाखंड
[ ४, १,४५.
प्रदेशज्ञः' जीव इत्ययमस्यार्थः, क्षेत्रज्ञशब्दस्य कुशलशब्दवत् जहत्स्वार्थवृत्तित्वात् । अन्तश्वासौ आत्मा च अन्तरात्मा' इति ।
“बन्धोदयोपशमनिर्जरापर्यीयाः अनुभवप्रदेशाधिकरणानि स्थितिश्च जघन्य-मध्यमोत्कृष्टा यत्र निर्दिश्यन्त तत्कर्म्मप्रवादम् ; अथवा ईर्यापथकर्मादिसप्तकर्माणि यत्र निर्दिश्यन्ते तत्कर्मप्रवादम् । तत्र पदप्रमाणमशीतिशत सहस्राधिका एका कोटी १८०००००० । व्रत नियमप्रतिक्रमण-प्रतिलेखन-तपः कल्पोपसर्गाचार प्रतिमाविराधनाराधनविशुद्धयुपक्रमाः श्रामण्यकारणं च परिमितापरिमितद्रव्य- भावप्रत्याख्यानं च यत्राख्यातं तत्प्रत्याख्याननामधेयम् । तत्र चतुरशीतिशतसहस्रपदानि ८४००००० । समस्तविद्या अष्टौ महानिमित्तानि तद्विषयों रज्जुराशिविधिः
क्षेत्र कहा जाता है । अथवा जीव प्रदेशश है, यह इसका अर्थ है, क्योंकि, क्षेत्रज्ञ शब्द कुशल शब्दके समान जहत्स्वार्थवृत्ति लक्षणा रूप है । अभ्यन्तर होने से वह अन्तरात्मा कहा जाता है ।
जिसमें बन्ध, उदय, उपशम और निर्जरा रूप पर्यायोंका, अनुभाग, प्रदेश व अधिकरण तथा जघन्य, मध्यम एवं उत्कृष्ट स्थितिका निर्देश किया जाता है वह कर्मप्रवाद है; अथवा जिसमें ईर्याीपथकर्म आदि सात कर्मोंका निर्देश किया जाता है वह कर्मप्रवादपूर्व कहलाता है । उसमें पदोंका प्रमाण एक करोड़ अस्सी लाख है १८०००००० |
जिसमें व्रत, नियम, प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन, तप, कल्प, उपसर्ग, आचार, प्रतिमाविराधन, आराधन और विशुद्धिका उपक्रम, श्रमणताका कारण तथा द्रव्य और भावकी अपेक्षा परिमित व अपरिमित काल रूप प्रत्याख्यान का कथन हो प्रत्याख्यान नामक पूर्व है । उसमें चौरासी लाख पद हैं ८४००००० 1 जिसमें समस्त विद्याओं, आठ महानिमित्तों, उनके विषय, राजुराशिविधि,
१ प्रतिषु ' प्रदेश: ' इति पाठः ।
२ अट्टकम्मान्मंतरवत्तीसभावादो चेदणान्मंतरवत्तीसभावादो च अंतरप्पा । अं. प. २, ८६-८७. ३. खं. पु. १. पू. १२१. त. रा. १,२०, १२. कम्मपवादो समोदाणिरियावह किरिया तवाहाकम्माणं वण्णणं कुणइ । जयध. १, पृ. १४२. अं. प. २-८८.
४ प्रतिषु ' प्रतिलेखनलपन्कल्पोप, मप्रतौ ' पतिलेखनलयन्मल्पोप-' इति पाठः ।
५ ष. खं. पु. १, पृ. १२१. त. रा. १,२०, १२. पच्चक्खाणपवादो णाम दुवणा दन्त्र-खेत-काळभावभेदमिणं परिमियमपरमियं च पच्चक्खाणं वण्णीद जयध. १, पु. १४३. अं. प. २, ९५-१००.
६ प्रतिषु ' तद्वियो ' इति पाठः ।
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