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१६२] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, १, १५. मतदपि द्विविधमंगमंगबाह्यमिति । अंगश्रुतमाचारादिभेदेन द्वादशविधम् , इतरश्च सामायिकादिभेदेन चतुर्दशविधम् , अथवा अनेकभेदम् ; चक्षुरादिभ्यः समुत्पन्नस्य परिगणनाभावात् । कथं शब्दस्य तत्स्थापनायाश्च श्रुतव्यपदेशः ? नैष दोषः, कारणे कार्योपचारात् ।
___ अथवा, अनुगम्यन्ते परिछिद्यन्त इति अनुगमाः षड्द्रव्याणि त्रिकोटिपरिणामात्मकपाषंड्यविषयाविभ्राड्भावरूपाणि प्राप्तजात्यन्तराणि प्रमाणविषयतया अपसारितदुर्नयानि सविश्वरूपानन्तपर्यायसप्रतिपक्षविधिनियतभंगात्मकसत्तास्वरूपाणीति प्रतिपत्तव्यम् । एवमणुगमपरूवणा कदा ।
संपहि णयसरूवपरूवणा कीरदे- को नयो नाम ? ज्ञातुरभिप्रायो नयः ।
वह श्रुतज्ञान दो प्रकार है - अंग और अंगबाह्य । अंगश्रुत आचार आदिके भेदसे बारह प्रकार और दूसरा सामायिक आदिके भेदसे चौदह प्रकार अथवा अनेक भेद रूप है, क्योंकि, चक्षु आदि इन्द्रियोंसे उत्पन्न उसकी गणनाका अभाव है ।
शंका-शब्द और उसकी स्थापनाकी श्रुत संज्ञा कैसे हो सकती है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, कारणमें कार्यका उपचार करनेसे शब्द या उसकी स्थापनाकी श्रुत संशा बन जाती है ।
___ अथवा 'जो जाने जाते हैं वे अनुगम हैं ' इस निरुक्तिके अनुसार त्रिकोटि स्वरूप (द्रव्य, गुण व पर्याय) पाखण्डियोंके अविषयभूत अविभ्राड्भावसम्बन्ध अर्थात् कथंचित् तादात्यसे सहित, जात्यन्तर स्वरूपको प्राप्त, प्रमाणके विषय होनेसे दुर्नयोंको दूर करनेवाले, अपनी नानारूप अनन्त पर्यायोंकी प्रतिपक्ष भूत असत्तासे सहित और उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य स्वरूपसे संयुक्त ऐसे छह द्रव्य अनुगम है,ऐसा जानना चाहिये । इस प्रकार अनुगमकी प्ररूपणा की है।
अब नयोंके स्वरूपकी प्ररूपणा करते हैशंका-नय किसे कहते हैं ? समाधान–ज्ञाताके अभिप्रायको नय कहते हैं।
१ प्रतिषु ' -नियम ' इति पाठः। २ सत्ता सव्वपयत्था सविस्सरूवा अणंतपज्जाया । भंगप्पादधुवा सप्पडिवरखा हवदि एक्का ।। पंचा. ८.
३ णाणं होदि पमाणं णओ वि णादुस्स हिदयभावत्थो। ति. प. १-८३. ज्ञानं प्रमाणमात्मादेरुपायो न्यास इष्यते । नयो ज्ञातुरभिप्रायः युक्तितोऽर्थपरिग्रहः । लघी. ६, २.
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