Book Title: Shatkhandagama Pustak 09
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१६८ ]
उभयथापि द्रवणोपलंभात् ।
साम्प्रतं द्रव्यविकल्प उच्यते सदित्येकं वस्तु, सर्वस्य सतोऽविशेषात् । न ततो व्यतिरिक्तं किंचित्, असत्वप्रसंगात् । अथवा सर्वं द्विविधं वस्तु जीवाजीवभावाभ्यां विधि-निषेधाभ्यां मूर्तीमूर्तत्वाम्यां अस्तिकायानस्तिकायभेदाम्यां वा । कोऽनस्तिकायः ? कालः, तस्य प्रदेश - प्रचयाभावात् । कुतस्तस्यास्तित्वम् ? प्रचयस्य सप्रतिपक्षत्वान्यथानुपपत्तेः । अथवा, सर्व वस्तु त्रिविधं द्रव्य-गुण- पर्यायैः । चतुर्विधं वा बद्ध-मुक्त-बन्ध-मोक्षकारणैः । तत्र बद्धः संसारिजीवः । मुक्तः कर्मकलंकाङ्कच्युतः । एकान्तबुध्यवसितः सर्वो बाह्यार्थ : मिथ्याविरति -प्रमादकषाय- योगाश्च बंधकारणम् । कथम् ? एतेषामेकत्वं प्रत्यभेदाद् । अनेकान्तबुद्ध्यध्यवसितः सर्वो
छक्खंडागमे वेयणाखंड
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क्योंकि, वस्तुके दोनों प्रकार से भी उन पर्यायोंको प्राप्त करना पाया जाता है ।
अब द्रव्यके भेदको कहते हैं - 'सत् ' इस प्रकारसे वस्तु एक है, क्योंकि, सबके सत्की अपेक्षा कोई भेद नहीं है; कारण कि सत्से भिन्न कुछ नहीं है, क्योंकि, वैसा होने पर उसके असत् होनेका प्रसंग आवेगा । अथवा सब वस्तु जीवभाव- अजीवभाव, विधि-निषेध, मूर्त-अमूर्त या अस्तिकाय अनस्तिकायके भेद से दो प्रकार है ।
शंका
-अनस्तिकाय कौन है ?
[ ४, १,४५.
समाधान-काल अनस्तिकाय है, क्योंकि, उसके प्रदेशप्रचय नहीं है ?
शंका- तो फिर कालका अस्तित्व कैसे है ?
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समाधान - चूंकि अस्तित्वके विना प्रचयके सप्रतिपक्षता बन नहीं सकती अतः उसका अस्तित्व सिद्ध है ।
अथवा, सब वस्तु द्रव्य, गुण व पर्यायसे तीन प्रकार है । अथवा वह वस्तु बद्ध, मुक्त, बन्धकारण और मोक्षकारणकी अपेक्षा चार प्रकार है । उनमें बद्ध संसारी जीव 1 कर्मरूपी कलंकसे रहित मुक्त जीव है । एकान्त बुद्धिसे निश्चित सब बाह्य पदार्थ और मिथ्यात्व, अविरति प्रमाद, कषाय व योग, ये बन्धकारण हैं; क्योंकि, इनकी एकता के प्रति कोई भेद नहीं है । अनेकान्त बुद्धिसे निश्चित सब बाह्य पदार्थ और सम्यक्त्व, अविरति,
१ 'सत्ता' इत्येकं द्रव्यम् । जयध. १, पृ. २११.
२ द्विविधं वा द्रव्यं जीवाजीवद्रव्यभेदेन । जयथ. १, पृ. २१३.
३ त्रिविधं वा द्रव्यं भव्याभव्यानुभयभेदेन । जयध. १, पृ. २१४.
४ संसार्यसंसारिभदेन जीवद्रव्यं द्विविधम्, अजीवद्रव्यं पुद्गलापुद्गलभेदेन द्विविधम् एवं चतुविधं वा द्रव्यम् । जयध. १, पृ. २१४.
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