Book Title: Shatkhandagama Pustak 09
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१८०] छक्खंडागमे घेयणाखंड
[४, १, ४५. युज्यते, विरोधात । न स्वतो व्यतिरिक्ताशेषार्थव्यवच्छेदकः शब्दः, अयोग्यत्वात् । योग्यः शब्दो योग्यार्थस्य व्यवच्छेदक इति नातिप्रसंग आढौकते । कुतो योग्यता शब्दार्थानाम् ? स्व-पराभ्याम् । न चैकान्तेनान्यत एव तदुत्पत्तिः, स्वतो विवर्तमानानामर्थानां सहायत्वेन वर्तमानबाह्यार्थोंपलम्भात् । न च शब्दयोर्दैविध्ये तत्सामर्थयोरेकत्वं न्याय्यम् , भिन्नकालोत्पन्नद्रव्योपादानभिन्नाधारयोरेकत्वविरोधात् । न च सादृश्यमपि, तयोरेकत्वापत्तेः । ततो वाचकभेदादवश्यं वाच्यभेदेनापि भवितव्यमिति नानार्थाभिरूढः समभिरूढः । एवं समभिरूढनयस्वरूपमभिहितम् ।
वाचकगतवर्णभेदेनार्थस्य गवाद्यर्थभेदेन गवादिशब्दस्य च भेदकः एवम्भूतः । क्रियाभेदे न अर्थभेदकः एवम्भूतः, शब्दनयान्तर्भूतस्य एवम्भूतस्य अर्थनयत्वविरोधात् । केऽर्थनयाः ?
विरोध है। शब्द अपनेसे भिन्न समस्त पदार्योंका व्यवच्छेदक नहीं हो सकता, क्योंकि, उसमें वैसी योग्यता नहीं है। किन्तु योग्य शब्द योग्य अर्थका व्यवच्छेदक होता है, अत एव अतिप्रसंग नहीं आता।
शंका-शब्द और अर्थके योग्यता कहांसे आती है ? समाधान-स्व और परसे उनके योग्यता आती है ।
सर्वथा अन्यसे ही उसकी उत्पत्ति होती हो ऐसा है नहीं, क्योंकि, स्वयं वर्तनेवाले पदार्थोकी सहायतासे वर्तते हुए बाह्य पदार्थ पाये जाते हैं । दूसरे, शब्दोंके दो प्रकार होनेपर उनकी शक्तियोंको एक मानना भी उचित नहीं है, क्योंकि, भिन्न कालमें उत्पन्न
भिन्न उपादान एवं भिन्न आधारवाली शब्दशक्तियोंके अभिन्न होनेका विरोध है । उनमें सादृश्य भी नहीं हो सकता, क्योंकि, ऐसा होनेपर एकताकी आपत्ति आती है। इस कारण वाचकके भेदसे वाच्यभेद भी अवश्य होना चाहिये। अत एव शब्दभेदसे नाना अर्थो में जो रूढ़ है वह समभिरूढ़ नय है, यह सिद्ध है। इस प्रकार समभिरूढ़ नयका स्वरूप कहा गया है।
जो शब्दगत वर्णोके भेदसे अर्थका और गौ आदि अर्थके भेदसे गो आदि शब्दका भेदक है वह एवम्भूत नय है । क्रियाका भेद होनेपर एवम्भूत नय अर्थका भेदक नहीं है, क्योंकि, शब्दनयके अन्तर्गत एवम्भूत नयके अर्थनय होने का विरोध है ।
शंका- अर्थनय कौन हैं ?
१ प्रतिषु व्यवच्छेदकशब्दः' इति पाठः।
२ शब्दभेदश्वेदस्ति अर्थभेदेनाप्यवश्यं भवितव्यामिति नानार्थसमभिरोणात् समभिरूदः । स. सि. १.३३. त. रा. १, ३३, १०.
३ ष. खं. पु. १, पृ. ९०. जयध. १, पृ. २४२.
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