________________
१८२ 1
छक्खडागमे यणाखंडे
[ ४, १,४५.
एते सर्वेऽपि नयाः अनवधृतस्वरूपाः सम्यग्दृष्टयः, प्रतिपक्षानिराकरणात्' । एत एव दुरधारिताः मिथ्यादृष्टयः, प्रतिपक्षनिराकरणमुखेन प्रवृत्तत्वात् । अत्रोपयोगिनः श्लोकाःयथैकं कारकमर्थसिद्धये समीक्ष्य शेषं स्वसहायकारकम् ।
तथैव सामान्य- विशेषमातृका नयास्तवेष्टा गुण-मुख्यकल्पतः ॥ ५९ ॥ य एव नित्य-क्षणिकादयो नयाः मिथोऽनपेक्षाः स्व- परप्रणाशिनः । तएव तत्त्वं विमलस्य ते मुनेः परस्परेक्षाः स्व-परोपकारिणः ॥ ६० ॥ मिथ्यासमूहो मिथ्या चेन्न मिथ्यैकान्ततास्ति नः ।
निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽर्यकृत् ॥ ६१ ॥
एतेषां नयानां विषय उपनयः उपचारात् । तत्समूहो वस्तु, अन्यथार्थक्रियाकर्तृत्वानुपपत्तेः । अत्रोपयोगी श्लोकः -
ये सभी नय वस्तुस्वरूपका अवधारण न करनेपर समीचीन नय होते हैं, क्योंकि, वे प्रतिपक्ष धर्मका निराकरण नहीं करते । किन्तु ये ही जब दुराग्रहपूर्वक वस्तुस्वरूपका अवधारण करनेवाले होते हैं तब मिथ्यानय कहे जाते हैं, क्योंकि, वे प्रतिपक्षका निराकरण करनेकी मुख्यतासे प्रवृत्त होते हैं। यहां उपयोगी लोक
जिस प्रकार एक कारक शेषको अपना सहायक कारक मान करके प्रयोजनकी सिद्धिके लिये होता है, उसी प्रकार सामान्य व विशेष धर्मोसे उत्पन्न जय आपको मुख्य और गौणकी विवक्षासे इष्ट हैं ॥ ५९ ॥
जो नित्य व क्षणिक आदि नय परस्पर में निरपेक्ष होकर अपना व परका नाश करनेवाले हैं वे ही आप विमल मुनिके यहां परस्परकी अपेक्षा युक्त हो अपने व परके उपकारी हैं ॥ ६० ॥
मिध्यानयका विषयसमूह मिथ्या है, ऐसा कहनेपर उत्तर देते हैं कि वह मिथ्या ही हो, ऐसा हमारे यहां एकान्त नहीं है। किन्तु परस्परकी अपेक्षा न रखनेवाले नय मिथ्या हैं, तथा परस्परकी अपेक्षा रखनेवाले वे वास्तवमें अभीष्टसिद्धिके कारण हैं ॥ ६१ ॥
इन नयाँका विषय उपचारसे उपनय है । इनका समूह वस्तु है, क्योंकि, इसके विना अर्थक्रियाकारित्व नहीं बन सकता। यहां उपयोगी श्लोक
१ न चैकान्तेन नयाः मिथ्यादृष्टय एव, परपक्षानिराकरिष्णूनां सप (स्वप ) क्षतत्वावधारणे व्यापृतानां स्यात्सम्यग्दृष्टित्वदर्शमात् । जयध. १, पृ. २५७.
२ एते सर्वेऽपि नयाः एकान्तावधारणगर्भा मिथ्यादृष्टयः, एतैरध्ववसितवस्त्वभावात् । जयध. १, पृ. २४५. ६ प्रतिषु 'तेषा' इति पाठः । ४ बुँ. स्व. ६२. तत्र 'यथैककं' इत्यस्य स्थाने 'यथैकशः' इति पाठः । ५ बु. स्त्र. ६१. ६ आ. सी. १०८.
७ प्रतिषु ' विषयोपनयः ' इति पाठः । तच्छाखा प्रशाखात्मोपनयः । अष्टशती १०७.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org