Book Title: Shatkhandagama Pustak 09
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१८६]
छक्खंडागमे वैयणाखंड
[४, १, ४५. वुच्चदे । तत्थ आणुपुवीए एत्थ णत्थि संभवो, णाणेगत्तविवक्खादो। णज्जते एदेण जीवादिपदत्था त्ति णाणमिदि गुणणामं । पमाणमेक्कं चेव, संगहणयावलंबणादो। अधवा पमाणं अणतं, णाणस्स णयप्पमाणत्तादो । वत्तब्वमेदस्स ससमय-परसमया । मदि-सुद-ओधिमणपज्जव-केवलणाणभेएण पंच अहियारा, ण वड्डिमा ण चूणा; ववहारणयावलंबणादो।
__ संपदि सुदणाणमुहेण चउब्धिहो वयारो वुच्चदे- णाम-ट्ठवणा-दव्व-भावसुदणाणभेएण चउविहं सुदणाणं । आदिल्ला तिण्णि वि दव्वट्ठियस्स णिक्खेवा । कधं णामं दव्वट्ठियस्स ? ण, पज्जवहिए खणक्खएण सद्दत्थविसेसभावेण संकेदकरणाणुववत्तीए वाचियवाचयभेदाभावादो । कधं सद्दणएसु तिसु वि सद्दववहारो ? अणप्पिदअत्थगयभयाणमप्पिदसद्दणिबंधणभेयाणं तेसिं तदविरोहादो । कधं ट्ठवणा दव्वट्ठियणयविसओ ? ण, अत्थम्हि'
उपक्रम कहा जाता है। उनमें आनुपूर्वी की यहां सम्भावना नहीं है, क्योंकि, यहां ज्ञानके एकत्वकी विवक्षा है। चूंकि इससे जीवादि पदार्थ जाने जाते हैं अतः 'ज्ञान' यह गुणनाम है। प्रमाण- एक ही है, क्योंकि, यहां संग्रहनयका अवलम्बन है । अथवा प्रमाण अनन्त है, क्योंकि, ज्ञान शेयके प्रमाण है अर्थात् जितने ( अनन्त ) शेय हैं उतने ही ज्ञान भी हैं। वक्तव्य इसके स्वसमय और परसमय हैं। मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल ज्ञानके भेदसे अधिकार पांच हैं । न वे अधिक है और न कम भी, क्योंकि, यहां व्यवहारनयका अवलम्बन है।
___ अब श्रुतज्ञानकी मुख्यतासे चार प्रकारका अवतार कहते हैं- नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव श्रुतके भेदसे श्रुतक्षान चार प्रकार है। इनमें आदिके तीनों ही निक्षेप द्रव्यार्थिकनयके हैं।
शंका-नाम द्रव्यार्थिकनयका निक्षेप कैसे है ?
समाधान नहीं, क्योंकि, पर्यायार्थिकनयमें क्षणक्षयी होनेसे शब्द और अर्थकी विशेषतासे संकेत करना न बन सकने के कारण वाच्य वाचकभेदका अभाव है।
शंका-तो फिर तीनों ही शब्दनयोंमें शब्दका व्यवहार कैसे होता है ?
समाधान-अर्थगत भेदकी अप्रधानता और शब्दनिमित्तक भेदकी प्रधानता रखनेवाले उक्त नयोंके शब्दव्यवहारमें कोई विरोध नहीं है ।
शंका-स्थापना द्रव्यार्थिकनयका विषय कैसे है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, अर्थका उसके द्वारा ग्रहण होनेपर स्थापना
१ अ.काप्रत्योः 'पज्जय' इति पाठः। २ अप्रती । अतम्हि '; आ-कापत्योः । अत्तम्हि ' इति पाठः।
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