Book Title: Shatkhandagama Pustak 09
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, १, १५.] कदिअणियोगदारे सुत्तावयरणं
समवाए सलक्षचतुःषष्टिपदसहस्रे । १६४०००। सर्वपदार्थानां समवायश्चित्यते । स चतुर्विधः द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावविकल्पैः । तत्र धर्माधर्मास्तिकाय-लोकाकाशैकजीवानां तुल्यासंख्येयप्रदेशत्वादेकेन प्रमाणेन द्रव्याणां समवायनात् द्रव्यसमवायः । जम्बूद्वीप--सर्वार्थसिद्धयप्रतिष्ठाननरक-नन्दीश्वरैकवापीनां तुल्ययोजनशतसहस्रविष्कम्भप्रमाणेन क्षेत्रसमवायनात्क्षेत्रसमवायः। सिद्धि-मनुष्यक्षेत्रर्तुविमान-सीमन्तनरकाणां तुल्ययोजनपंचचत्वारिंशच्छतसहस्रविष्कम्भप्रमाणेन क्षेत्रसमवायः । उत्सर्पिण्यवसर्पिण्योस्तुल्यदशसागरोपमकोटाकोटिप्रामाण्यात् कालसमवायनात्कालसमवायः । क्षायिकसम्यक्त्व-केवलज्ञान-दर्शन-यथाख्यातचारित्राणं यो भावस्तदनु
व अधः, इन छह दिशाओं में गमन करने रूप छह अपक्रमोंसे सहित होनेके कारण छह प्रकार है। चूंकि सात भंगोंसे उसका सद्भाव सिद्ध है, अतः वह सात प्रकार है। ज्ञानावरणादिक आठ कर्मोंके आस्रवसे युक्त होने, अथवा आठ कर्मों या सम्यक्त्वादि आठ गुणोंका आश्रय होनेसे आठ प्रकार है । नौ पदार्थों रूप परिणमण करनेकी अपेक्षा नौ प्रकार है। पृथिवी, जल, तेज, वायु, प्रत्येक व साधारण वनस्पति, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय. चतुरिन्द्रिय रूप दस स्थानों में प्राप्त होनेसे दस प्रकार कहा गया है ॥ ७२-७३ ॥
___एक लाख चौंसठ हजार १६४००० पद प्रमाण समवायांगमें सब पदार्थोके समवायका अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र व कालादि अपेक्षा समानताका विचार किया जाता है । वह समवाय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके भेदसे चार प्रकार है । उनमें धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश और एक जीव, इन द्रव्योंके समान रूपसे असंख्यात प्रदेश होनेसे एक प्रमाणसे द्रव्योंका समवाय होनेके कारण द्रव्यसमवाय कहा जाता है । जम्बूद्वीप, सर्वार्थसिद्धि, अप्रतिष्टान नरक और नन्दीश्वरद्वीपस्थ एक वापी, इनके समान रूपसे एक लाख योजन विस्तारप्रमाणकी अपेक्षा क्षेत्रसमवाय होनेसे क्षेत्रसमवाय है। सिद्धिक्षेत्र, मनुष्यक्षेत्र, ऋतुविमान और सीमन्त नरक, इनके समान रूपसे पैंतालीस लाख योजन विस्तारप्रमाणसे क्षेत्रसमवाय है । उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालोंके समान दश सागरोपम कोडाकोड़ि प्रमाणकी अपेक्षा कालसमवाय होनेसे कालसमवाय है। क्षायिक सम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन और यथाख्यातचारित्र, इनका
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१ ष. खं. पु. १, पृ. १०१. समवाये सर्वपदार्थानां समवायश्चिन्त्यते । त. रा. १, २०, १२. समवाओ णाम अंग दव्व-खेत्त-काल-भावाणं समवायं वण्णेदि । जयध. १, पृ. १२४. से संग्रहेण सादृश्यसामान्येन अवेयन्ते ज्ञायन्ते जीवादिपदार्था द्रव्य-क्षेत्र-कालभावानाश्रित्य अस्मिन्निति समवायांगम् । गो. जी. जी. प्र.३५६. समवायंग अडकदिसहस्समिगिलक्खमाणपयमेत्तं । संगहणयेण दव्वं खेत्तं कालं पड्डच्च भवं ॥ दीवादी अवियंति अत्था णज्जति सरित्थसामण्णा । अं. प. १, २९-३०.
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