Book Title: Shatkhandagama Pustak 09
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
४, १, ४५.] कदिअणियोगदारे णयपरूवणा
[१७९ नानार्थसमभिरोहणात्समभिरूढः । इन्दनादिन्द्रः शकनाच्छकः पूरिणात्पुरन्दर इत्येकस्यार्थस्यैकेन गतत्वादन्वर्थस्य नाम्नस्तत्र सामर्थ्याभावाद्वा पर्यायशब्दप्रयोगोऽनर्थक इति नानार्थरोहणात्समभिरूढः । अथ स्यान्न शब्दो वस्तुधर्मः, तस्य ततो भेदात् । नाभेदः, वाच्यवाचकभावाद् भिन्नेन्द्रियग्राद्यत्वाद् भिन्नसाधनत्वाद् भिन्नार्थक्रियाकारित्वादुपायोपेयरूपत्वात त्वगिन्द्रियग्राह्याग्राह्यत्वात् क्षुर-मोदकशब्दोच्चारणे मुखस्य पाटन-पूरणप्रसंगाद् वैयधिकरण्यात् । 'न च विशेष्याद् भिन्नं विशेषणमव्यवस्थापत्तेः। ततो न वाचकभेदाद्वाच्यभेद इति ? नैष दोषः, भिन्नानामपि वस्त्राभरणादीनां विशेषणत्वोपलम्भात् । न चैकत्वे व्यवच्छेद्य-व्यवच्छेदकभावो
शब्दभेदसे जो नाना अर्थों में रूढ़ हो, अर्थात् जो शब्दके भेदसे अर्थके भेदको स्वीकार करता हो वह समभिरूढ़नय है। जैसे- इन्दन अर्थात् ऐश्वर्योपभोग रूप क्रियाके संयोगसे इन्द्र, सकना क्रियाके संयोगसे शक और पुरोंके विभाग करने रूप क्रियाके संयोगसे पुरन्दर, इस प्रकार एक अर्थका एक शब्दसे परिज्ञान होनेसे अथवा अम्वर्थक शब्दका उस अर्थमें सामर्थ्य न होनेसे पर्यायशब्दोंका प्रयोग व्यर्थ है। इसलिये नाना अर्थीको छोड़ एक अर्थमें ही शब्द का रूढ़ होना इस नयकी दृष्टि में उचित है।
शंका-शब्द वस्तुका धर्म नहीं है, क्योंकि, उसका वस्तुसे भेद है। और यदि उसका वस्तुसे अभेद माना जाय तो यह सम्भव नहीं है, क्योंकि, वस्तु वाच्य है और शब्द बाचक है: वस्तु भिन्न इन्द्रियसे ग्राह्य है और शब्द भिन्न इन्द्रियसे ग्राह्य है: वस्तके कारण भिन्न हैं और शब्दके कारण भिन्न हैं; वस्तुकी अर्थक्रिया भिन्न है और शब्दकी अर्थक्रिया भिन्न है; शब्द उपाय है और वस्तु उपेय है, तथा वस्तु त्वगिन्द्रयसे ग्राह्य है और शब्द त्वगिन्द्रियसे ग्राह्य नहीं है। इसके अतिरिक्त उन दोनों में अभेद माननेपर छुरा और मोदक शब्दोंका उच्चारण करनेपर क्रमसे मुखके कटने और पूर्ण होनेका प्रसंग आता है। अतः दोनों में सामानाधिकरण्य न होनेसे अभेद नहीं हो सकता। कदाचित् शब्द और वस्तमे विशषण विशेष्यभाव मानकर यदि शब्दको वस्तुका धमे स्वीकार करें तो यह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि, विशेष्यसे भिन्न विशेषण नहीं होता; कारण कि ऐसा मानने में अव्यवस्थाकी आपत्ति आती है। अत एव शब्द वस्तुका धर्म न होनेसे उसके भेदसे अर्थका भेद नहीं हो सकता?
समाधान -यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, विशेष्यसे भिन्न भी वस्त्राभरणादिकोंके विशेषणता पायी जाती है। और विशेष्यसे विशेषणको एक मानने पर उनमें व्यवच्छेद्यव्यवच्छेदकभाव मानना भी योग्य नहीं कहा जा सकता, क्योंकि, अभेद माननेपर उसका
........................
१. सि. १, ३३. तं. रा. १, ३३, १०. 4. खं. पु. १, पृ. ८९. जयंध. १, पृ. १३९. २ नयच. १, पृ. २४०. ३ प्रतिषु 'घटन' इति पाठः। ४ जयध. १. पृ. २३२.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org