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४, १, ४४.] कदिअणियोगद्दारे गंथकत्तारपरूवणा
[१२९ संपहि वड्डमाणतित्थगंथकत्तारो वुच्चदे
पंचेव अस्थिकाया छज्जीवणिकाया महव्वया पंच ।
अट्ठ य पचयणमादा सहेउओ बंध-मोक्खो य ॥ ३९ ॥ को होदि त्ति सोहम्मिदचालणादो जादसंदेहेण पंच-पंचसयंतेवासिसहियभादुत्तिदयपरिवुदेण माणत्थंभदंसणेणेव पणट्ठमाणेण वड्डमाणविसोहिणा वड्डमाणजिणिंददंसणे वणट्ठासंखेज्जभवज्जियगरुवकम्मेण जिणिंदस्स तिपदाहिणं करिय पंचमुट्ठीए वंदिय हियएण जिणं झाइय पडिवण्णसंजमेण विसोहिबलेण अंतोमुहुत्तस्स उप्पण्णासेसगणिदलक्खणेण उवलद्धजिणवयणविणिग्गयबीजपदेण गोदमगोत्तेण बम्हणेण इंदभूदिणा अयार-सूदयद-ट्ठाण-समवायवियाहपण्णत्ति-णाहधम्मकहोवासयज्झयणंतयडदस-अणुत्तरोववादियदस-पण्णवायरण-विवायसुत्त-दिट्टिवादाणं सामाइय-चउवीसत्थय-वंदणा-पडिक्कमण-वइणइय-किदियम्म दसवयोलिउत्तरज्झयण-कप्पववहार-कप्पाकप्प-महाकप्प-पुंडरीय-महापुंडरीय-णिसिहियाणं चोदसपइण्णयाणमंगबज्झाणं च सावणमासबहुलपक्खजुगादिपडिवयपुवदिवसे जेण रयणा कदा तेर्णिदभूदि
अब वर्धमान जिनके तीर्थमें ग्रन्थकर्ताको कहते हैं
पांच अस्तिकाय, छह जीवनिकाय, पांच महाव्रत, आठ प्रवचनमाता अर्थात् पांच समिति और तीन गुप्ति तथा सहेतुक बन्ध और मोक्ष ॥ ३९ ॥
'उक्त पांच अस्तिकायादिक क्या हैं ?' ऐसे सौधर्मेन्द्र के प्रश्नसे संदेहको प्राप्त हुए, पांच सौ पांच सौ शिष्योंसे सहित तीन भ्राताओंसे वेष्टित,मानस्तम्भके देखनेसे ही मानसे रहित हुए, वृद्धिको प्राप्त होनेवाली विशुद्धिसे संयुक्त, वर्धमान भगवान्के दर्शन करनेपर असंख्यात भवोमें अजित महान् कोको नष्ट करनेवाले; जिनेन्द्र देवकी तीन प्रदक्षिणा करके पंच मृष्टियोंसे अर्थात् पांच अंगों द्वारा भूमिस्पर्शपूर्वक वंदना करके एवं हृदयसे जिन भगवान्का ध्यान कर संयमको प्राप्त हुए, विशुद्धिके बलसे मुहुर्तके भीतर उत्पन्न हुए समस्त गणधरके लक्षणोंसे संयुक्त, तथा जिनमुखसे निकले हुए बीजपदोंके ज्ञानसे सहित ऐसे गौतम गोत्रवाले इन्द्रभूति ब्राह्मण द्वारा चूंकि आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्तिअंग, ज्ञातृधर्मकथांग, उपासकाध्ययनांग, अन्तकृतदशांग, अनुत्तरोपपादिक
, प्रश्नव्याकरणांग, विपाकसूत्रांग व दृष्टिवादांग, इन बारह अंगों तथा सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्पाकल्प, महाकल्प, पुण्डरीक, महापुण्डरीक व निषिद्धिका, इन अंगबाह्य चौदह प्रकीर्णकोंकी श्रावण मासके कृष्ण पक्षमें युगके आदिम प्रतिपदाके पूर्व दिनमें रचना की
१ प्रतिषु · उप्पण्णे सेसगणिदि-' इति पाठः ।
२ अ-आप्रयोः दसवेयादि ', ' काप्रतौ । दसवेयालियादि ' इति पाठः। 5.क.१७.
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