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४, १, ४५.] कदिअणियोगद्दारे मदिणाणपरूवणा भावात् । न चैकान्तेन अगृहीतमेव प्रमाणैर्गृह्यते, अगृहीतत्वात् खरविषाणवदसतो ग्रहणविरोधात् । न चेहाप्रत्ययः संशयः, विमर्शप्रत्ययस्य निर्णयप्रत्ययोत्पत्तिनिमित्तलिंगपरिच्छेदनद्वारेण संशयमुदस्यतस्संशयत्वविरोधात् । न च संशयाधारजीवसमवेतत्वादप्रमाणम् , संशयविरोधिनः स्वरूपेण संशयतो व्यावृत्तस्य अत्रमाणत्वविरोधात् । नानध्यवसायरूपत्वादप्रमाणमीहा, अध्यवसितकतिपयविशेषस्य निराकृतसंशयस्य प्रत्ययस्य अनध्यवसायत्वविरोधात् । तस्मात्प्रमाणं परीक्षाप्रत्यय इति सिद्धम् । अनोपयोगी श्लोकः
न अबायावयवोत्पत्तिस्संशयावयवच्छिदा ।
सम्यग्निर्णयपर्यंता परीक्षेहेति कथ्यते ॥ ४७ ॥ नेहादयो मतिज्ञानमिन्द्रियेभ्योऽनुत्पन्नत्वाच्छ्रतज्ञानवदिति चेन्न, इन्द्रियजनितावग्रहज्ञानजनितानामीहादीनामुपचारेणेन्द्रियजत्वाभ्युपगमात् । श्रुतज्ञानेऽपि तदस्त्विति चेन्न, ईहादीनामिव
ज्ञान गृहीतग्राही नहीं हो सकता। और एकान्ततः अगृहीतको ही प्रमाण ग्रहण करते हों। सो भी नहीं है, क्योंकि, ऐसा होने पर अगृहीत होने के कारण खरविषाणके समान असत् होनेसे वस्तुके ग्रहणका विरोध होगा। ईहा प्रत्यय संशय भी नहीं हो सकता, क्योंकि निर्णयकी उत्पत्तिमें निमित्तभूत लिंगके ग्रहण द्वारा संशयको दूर करनेवाले विमर्श प्रत्ययके संशय रूप होने में विरोध है । संशयके आधारभूत जीवमें समवेत होनेसे भी वह ईहा प्रत्यय अप्रमाण नहीं हो सकता, क्योंकि, संशयके विरोधी और स्वरूपतः संशयसे भिन्न उक्त प्रत्ययके अप्रमाण होनेका विरोध है ! अनध्यवसाय रूप होनेसे भी ईहा अप्रमाण नहीं हो सकता, क्योंकि, कुछ विशेषोंका अध्यवसाय करते हुए संशयको दूर करनेवाले उक्त प्रत्ययके अनध्यवसाय रूप होने का विरोध है । अत एव परीक्षा प्रत्यय प्रमाण है, यह सिद्ध होता है। यहां उपयोगी श्लोक
संशयके अवयवोंको नष्ट करके अवायके अवयवोंको उत्पन्न करनेवाली जो भले प्रकार निर्णय पर्यन्त परीक्षा होती है वह ईहा प्रत्यय कहा जाता है ॥ ४७॥
शंका-ईहादिक प्रत्यय मतिज्ञान नहीं हो सकते, क्योंकि, वे श्रुत शानके समान इन्द्रियोंसे उत्पन्न नहीं होते।
समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि, इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुए अवग्रह शानसे उत्पन होनेवाले ईहादिकोंको उपचारसे इन्द्रियजन्य स्वीकार किया गया है।
शंका- वह औपचारिक इन्द्रियजन्यता श्रुतज्ञानमें भी मान लेना चाहिये।
१ प्रतिषु ' -पुदयस्यतत्संशयत्व ' इति पारः।
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